तकषी शिवशंकर पिल्लै मलयालम भाषा के शीर्षस्थ रचनाकारों में गिने जाते हैं। उनका लेखन आधुनिक भारत के समकालीन परिदृश्य का जीवन्त चित्रण करने के साथ ही उसके सामाजिक, सांस्कृतिक आहदों को पहचानने में सक्षम माना जाता है। उनके तीन सर्वोत्तम उपन्यासों में से एक तोट्टियुडे-मगन है। इसका हिन्दी में चुनौती शीर्षक से अनुवाद हुआ है। दूसरा रंटि टंगषी (दो सेर धान) है, जिसका साहित्य अकादमी की ओर से कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, तथा साहित्य अकादमी द्वारा सन 1957 में पुसस्कृत तीसरा महत्वपूर्ण उपन्यास Chemmen है , जिसमें केरल के तटवर्ती प्रदेश के मछुआरों के जीवन का चित्रण मिलता है। यह एक सरल रोमांस की कहानी है, जिसका ताना-बाना उस अन्धविश्वास के इर्द-गिर्द बुना गया ह, जो मछुआरों के दैनंदिन कार्य कलापों को प्रभावित करता है। इन सबका अत्यन्त यथार्थवादी ढंग से चित्रण किया गया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के हीरक जयन्ती वर्ष में पिल्लै के कालजयी उपन्यास ‘Chemmen’ के हिन्दी अनुवाद Machuare का विश्लेषण इस सन्दर्भ में भी कारगर लगता है कि हम मलयालीभाषी जनता के सुख-दुख और सामाजिक ताने-बाने को समझने के साथ वृहत्तर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य का संधान कर सकें कि समाज में वंचितों के जीवन की गाथा भी समानान्तर रूप से मुख्य धारा में मौजूद रहवासियों की तरह ही जीवन स्पंदन से भरपूर रही है। इस समुदाय का आन्तरकि विन्यास उसी तरह ढेरों जीवन मूल्यों का मुखापेक्षी रहता आया है, जिस तरह उच्च वर्ग और अग्रणी जातियों के समुदायों में सम्भव होता रहा है। ‘Chemmen’ या Machuare जब पहली बार 1956 में प्रकाशित हुआ, तब इसने मछुआरों के समाज के लोक विश्वास, परम्पराओं, कुरीतियों, व्रत-उपवासों, दैनदिन का जीवन, कार्य-व्यापार और जीवित रहने की शर्तों का समग्र मूल्यांकन प्रस्तुत किया था। एक ऐसे समाज का प्रतिबिम्ब दिखाने में तकषी शिवशंकर पिल्लै सक्षम हुए, जो उनसे पहले केरल राज्य के सुदूरवर्ती तटों में रहने वाले मछुआरों के जीवन में सम्भव होते हुए भी व्यापक समाज की निगाह से ओझल रहा। इस महाकाव्यात्मक उपन्यास Machuare का मूल बीज करूणा और दुस्वप्न के बीच कहीं गमन करता है। हालांकि उपन्यासकार ने इसे एक रूमानी करूण कथा के रूप् में अभिव्यक्ति दी, जिसमें कथानक तीन विभिन्न दिशाओं की ओर खुलता है। यह उपन्यास Machuare केरल के समुद्रतटीय इलाके में रहने वाले एक Machuare की महत्वाकांक्षी से आरम्भ होता है, जिसके लिए एक प्रेमी युगल के बीच प्रेम सम्बन्ध कथानक का मुख्य आलम्ब बनता है।
यह उपन्यास Machuare कथा के ढेरों प्रसंगों के बीच, समानान्तर रूप से चलने वाले प्रेम सम्बन्धों के उल्झााव के साथ अन्तर्कथा की तरह मछुआरा समाज में प्रचलित मान्यताओं और मिथकों की पुराकथाएं आगे बढ़ती हैं, जो उनके सादगी भरे जीवन को पीढ़ियों से प्रभावित करती आ रही हैं। मछुआरा समाज में प्रचलित एक मिथक कथा के अनुसार सागर देवी उस Machuare का जीवन तहस नहस कर देती है, जिसकी पत्नी अपवित्र हो जाती है। मिथक की अवधारणा में यह विश्वास पनपता है कि समुद्र का किनारा पवित्र होना चाहिए और इस पवित्रता का नैतिक जिम्मेदारी उसके किनारे पर रहने वाली स्त्रियों की है। इस विडम्बना के सूत्र की कथा का प्रारूप बनाते हुए लेखक तकषी शिवशंकर पिल्लै उन तमाम खोखली मान्यताओं को रेशा-रेशा उघाड़ देते हैं, जिन्हें आज भी भारत की अधिकांश अबादी और जातियां संत्रास की तरह ढोए जा रही हैं। दरअसल Chemmen का कथानक एक प्रेमकथा के रूपक को सामाजिक विसंगतियों की आड़ में प्रश्नांकित करने में सक्षम होता है, जिसके चलते मलयाली समाज में गरीबी का जीवन बसर करने वाले मछुआरों की मार्मिक कथा संास लेती है। यहां गरीब ग्रामीण तबके में प्रचलित यह रूढ़ि है कि बेटी का विवाह जल्दी कर देना चाहिए, अपनी मार्मिकता में उपस्थित है। यह प्रथा ऐसे नियम की तरह समुद्रतटीय मछुआरों (घटवारों) के यहां प्रचलित रहा, जिसका उल्लंघन वे किसी भी हालात में कर नहीं सकते थे। इसी तरह एक नियम यह भी कि केवल धीवर (जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव, जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार है, जो विशेष ढंग से एक खास समुदाय के आर्थिक वर्चस्व को स्थापित करता है। इन्हीं परम्पराओं में एक नियम यह भी लागू रहा कि कोई भी नया काम करने से पहले समुदाय के मुखिया से औपचारिक अनुमति लेना जरूरी था। तकषी इन सारे नियमों से बनने वाले सामाजिक, राजनीतिक टकरावों के द्वारा मछुआरा समाज का मर्म बेधते हैं। वे एक खास समुदाय की सच्चाई को उजागर करते हुए, चुपचाप बिना निर्णायक बने पूरे भारतीय समाज की सच्चाई के खोखलेपन को नंगा दिखाने का रंगामंच सजाते हैं। इस लिहाज से यह उपन्यास एक विशेष समुदाय के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवनर का समझने का साहित्यिक गजेटियर का रूप ले लेता है। चेम्मीन के बहाने हम मछुआरों की आर्थिक दुर्दशा, सामाजिक पिछडेपन, महाजनों और उच्च तबके द्वारा उनके शोषण, समुदाय के मुखिया द्वारा व्यवसाय पर अनेकानेक प्रतिबन्ध, सूदखोरी और बिचौलियों के आतंक का निर्मम मूल्यांकन देखते हैं।
उपन्यासकर ने Machuare में वंचित समाज का सत्य उसी तरह उकेरा है, जिस तरह हिन्दी में प्रेमचन्द और बांग्ला में विभूतिभूषण बद्योपाध्याय ने दर्ज किया है। इस उपन्यास Machuare को शायदा इसी कारण गरीब समाज को ऐसा बड़ा आख्यान माना जाता है , जिसके आईने में एक पूरी जातीय चेतना अभिशप्त होकर जीती है और अपने रीति-रिवाजों के बन्धनों में जकड़ी रहती है। करूतम्मा, चक्की, चेंपन, परिकक्कुटी, पलनी, पंचमी और ढेरों यादगार किरदारों के साथ यह रचा गया उपन्यास Machuare कई विरोधाभासों को समेटे हुए समाज में उच्च और निम्न वर्ग के वर्गीय अन्तर का जीवन्त सिनेमा है। जीवन के प्रति आस्था और निर्ममता के दो विपरीत ध्रुवों के बीच झूलता हुआ यह उपन्यास Machuare एक ऐसा गहरा सामाजिक पाठ भी है, जिस पर हर दौर में प्रासंगिक चर्चाएं होती रहेंगी।
स्त्रोत-
1. मछुआरे (चेम्मीन) उपन्यासकार तकषी शिवशंकर पिल्लै
2. दैनिक जागरण

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