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उत्तराखण्ड की संस्कृति एवं परम्पराओं में तीज-त्योहार गहरे रचे बसे हैं। खासकर Igas बग्वाल की बात तो ही निराली है। दीपावली उत्सव को गढ़वाली में बग्वाल कहा जाता है। ज्योति पर्व दीपावली के 11वें दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी को यहां बूढ़ी दीपावली यानी Igas मनाने की परम्परा है। कुछ क्षेत्रों में इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है।
लोक पर्व Igas की विशिष्टता यह है कि इस दिन लोग आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय ढोल-दमाऊ की गूंज के बीच पारम्परिक भैलो के साथ नृत्य करते हुए खेलते हैं। साथ ही घर-घर स्वाले-पकोड़े बनाकर एक-दूज को समाण के तौर पर भेंट करते हैं। पहले पर्वतीय क्षेत्र के गावों तक ही यह पर्व सीमित था लेकिन पहाड़ से पलायन होने के बाद लोग जहां-जहां मैदानी क्षेत्रों बसे हैं, वहां भी Igas को भव्य रूप से मनाते हैं।
Igas पर्व मानने के पीछे की मान्यता
कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देवउठनी (देवोत्थान) एकादशी को लोकपर्व Igas मनाया जाता है। पहाड़ में एकादशी को Igas के नाम से जानते हैं। लोक मान्यता है कि गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यहां दीपावली के 11वें दिन यह पर्व मनाया जाता है।
एक मान्यता के अनुसार टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति गढ़वाल के वीरभड़ माधो सिंह भंडारी थे। राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी दौरान बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी गढ़वाल सैनिक वापस न आ सका। तब सबने सोचा कि माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई परन्तु वीर भड़ माधो सिंह भण्डारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट (तिब्बत) के युद्ध में विजय प्राप्त की थी और दीपावली के ठीक 11वें दिन सेना वापस गढ़वाल लौटी थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी। तब से यह परम्परा लोक उत्सव के रूप में पहाड़ी क्षेत्रों में बन गई।
इस दिन लोग खुशी से झूमते हुए जब भैलो गीत गाते है तो परिवेश ‘‘भैलो रे भैलो, सुख करी भैलो, धर्म को द्वारी , भैलो धर्म की खोली, भैलो जै-जस करी सूना का संगाड। भैलों भै भैलो….. रूपा को द्वार दे भैलो, खरक दे गौड़ि-भैंस्यों को भैलो, खोड़ दे बाखयों को, भैलो हर्रों-तर्यों करी, भैलो…….’’ की मधुर लहरियों पर थिरक उठता है। गावों में पुरूष एवं महिलाएं अलग-अलग समूह बनाकर भैलो खेलते हैं। इस दौरान लोक नृत्य चांचडी, झुमैलों व चौफला के साथ पारम्परिक गीत भी गाए जाते हैं।
भैलो
Igas के दिन भैलो खेलने का विषेश रिवाज है। भैलो चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी ज्वलनषील होती है और इसे छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल अथवा पेड़ न हों, वहां के लोग देवदार, भीमल अथवा हिंसर की लकड़ी से भी भैलो बनाते हैं इन लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर किसी ऊचें एवं सुरक्षित स्थान पर इसे जलाकर सावधानी पूर्वक सिर के ऊपर घुमाते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। भैलो खेलते हुए गीत गाने, व्यंग्य-विनोद करने की भी परम्परा है। गांव के लोग खुषहाली और सुख-समृद्धि के लिए भैलो (बेलो) को गांव की चौहद अर्थात चारों ओर घुमाया जाता है।
भैलो की महत्ता
उत्तराखण्ड में पुराने समय में जब गावों में बिजली नहीं होती थी, तब पहाड़ के लोग भैलो (भीमल के छिल्ले) जलाकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे। इसके पीछे धारणा यह भी थी कि भैलो के प्रकाष से परिवेष की नकारात्मकता खत्म होती है। इसलिए हर धार्मिक आयोजन और बड़े समारोह में भी भैलो जलाना षुभ माना जाता है। Igas पर्व पर भैलो खेलने के पीछे भी यह मुख्य वजह है।
स्वाले-पकोड़े
स्वाले पकोड़े मवेषियों की पूजा के लिए बनाए जाते हैं। सुवह से ही घर में स्वाले व दाल के पकोड़े बनाए जाते है। साथ ही गााय के लिए पींडो यानी झंगोरा, भात व बाड़ी (मुंडवे का फीका हलवा) बनाना षुरू हो जाता है।
सन्दर्भः-
1. उत्तराखण्उ का समग्र ज्ञानकोश-डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद बलोदी
2. यूकेपीडिया-उत्तराखण्ड का सम्पूर्ण ज्ञानकोश-भगवान सिंह धामी
3. विनसर उत्तराखण्ड ईयर बुक
4. दैनिक जागरण
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