Bhailo

Igas के दिन Bhailo (भैलो) खेलने का विशेष रिवाज है। भैलो चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी ज्वलनशील होती है और इसे छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल अथवा पेड़ न हों, वहां के लोग देवदार, भीमल अथवा हिंसर की लकड़ी से भी भैलो बनाते हैं इन लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर किसी ऊचें एवं सुरक्षित स्थान पर इसे जलाकर सावधानी पूर्वक सिर के ऊपर घुमाते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। भैलो  खेलते हुए गीत गाने, व्यंग्य-विनोद करने की भी परम्परा है। गांव के लोग खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए भैलो (बेलो) को गांव की चौहद अर्थात चारों ओर घुमाया जाता है।

Bhailo की महत्ता

उत्तराखण्ड में पुराने समय में जब गावों में बिजली नहीं होती थी, तब पहाड़ के लोग Bhailo (भीमल के छिल्ले) जलाकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे। इसके पीछे धारणा यह भी थी कि भैलो के प्रकाश से परिवेश की नकारात्मकता खत्म होती है। इसलिए हर धार्मिक आयोजन और बड़े समारोह में भी भैलो  जलाना शुभ माना जाता है। Igas पर्व पर भैलो खेलने के पीछे भी यह मुख्य वजह है।

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