Ve Nayaab Aurtein

Ve Nayaab Aurtein-रिश्तों की आदिम महक और अनसुलझे सवाल

हिन्दी के समर्थ रचनाकार मृदुला गर्ग के संस्मरणों की यह किताब ‘Ve Nayaab Aurtein’ कई मामलों में अपने परिवेश को कुछ विशिष्ट ढंग से खुद के लिए स्वायत्त करती है। हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में संस्मरणों का एक प्रभावी मुकाम रहा है, जिसमें आत्मकथात्मक अंशों के लिखे जाने से लेकर जीवन, समाज, परिवेश, व्यक्तिगत रिश्ते, राजनीतिक- सांस्कृतिक विमर्श समेत ढेरों किरदारों पर किसी खास दृष्टिकोण से दस्तावेज करने की प्रक्रिया देश में बरसों से चलती आ रही है।

ऐसी बहुत सारी किताबें, साहित्यिक विमर्श से अलग समाज को पढ़ने और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को गहरी अन्तर्दृष्टि से पढ़ने और समझने की समझ देती हैं। अधिकांश संस्मरणों, रेखाचित्रों, आपसी संवादों, आत्मकथात्मक तथा जीवनीपरक लेखन में जीवन के वे सारे सूत्र छुपे हुए मिलते हैं, जिनसे गुजरकर उस रचनाकार और उसके दौर की बहुत सारी अंधेरी गलियों पर सर्चलाइट पड़ती है।

हिन्दी समाज में संस्मरण लेखन एक सर्वमान्य प्रचलित विधा के तौर पर न केवल खूव पढ़ी जाती है बल्कि सराही भी जाती रही है, बल्कि नई पीढ़ी ने भी अपने समय को टटोलने, अन्तः करण के दरवाजे को खोलने के फेर में बराबर इस पर लेखन किया है।

Ve Nayaab Aurtein Mradula

अब बात जब मृदुला जी जैसी वरिष्ठ रचनाकार के संस्मरणों Ve Nayaab Aurtein पर आती है, तो अनायास ही उसे पढ़ने का सम्मोहन बढ़ जाता है। यह भी जानना चाहिए कि हाल ही के वर्षों में उनकी समकालीन और बाद की पीढ़ी की लेखिकाओं ने संस्मरण आधारित बहुत सारी पुस्तकें लिखीं, जो सभी पठनीय होने के साथ-साथ थोड़ा बहुत वाद और विवाद में भी पड़ती रहीं हैं।

मैत्रेयी पुष्पा, मामता कालिया, चित्रा मुद्गल, पद्मा सचदेव की किताबें इसी परम्परा में देखी जा सकती हैं। मृदुला गर्ग इस किताब में अपनी चिर-परिचित अंदांज और शैली के तहत ही अपने पाठकों से मुखातिब होती हैं, जहां मुहावरेदार हिन्दी में उर्दू की बघार अपनी सबसे ऊर्जास्वित आभा में मौजूद है। हालांकि, इस किताब से गुजरते हुए कहीं-कहीं यह आभास भी मिलता है कि लेखिका अपने व्यक्तित्व की तरह बिन्दास ढंग से लाग-लपेट सब कुछ कहने को तत्पर हैं।

इससे कई बार यह भ्रम भी होता है कि क्या वे अपने परिवेश और उसके समाज को रेखांकित करते हुए थोड़ी उदास या तल्ख भी हैं ?….वे कौन से प्रश्न हैं, जिनसे इस उम्र में आकर उलझना उन्हें बहुत ही सुहाता है ?

वे खुद का हलफनामा कुछ इस तरह पेश करती हैं-‘दस्तूरे दुनिया की यह नाफरमानी आप कुबूल कर लें। और भी हैं वैसे इसमें काफी।…यह भी याद रखिएगा कि ऐसी केई तोप नहीं होती, जिसमें जिन्दगी या जंग दरार न डाल सके’ थोड़े ठसक, कुछ बेनियाज अंदात तो भरभूर सचेत रहते हुए मृदुला गर्ग इस गद्य की अनगिनत किरदार गढ़ती हैं या इस तरह कह लें कि अपनी जिन्दगी में मिलने वाले किरदारों को अपनी कलम से कलमबद्ध करती हैं।

उनका यह कतई दावा नहीं कि हर एक रिश्ता, जिसे उन्होंने थोड़ी उम्र के लिए ही जिया हो, यहां आ गया। पर इतना अवश्य है कि जिनकी बात कहे बगैर उनका अपना जीवन मुकम्मल नहीं जान पड़ता, वे सब यहां चमकती आंखों के साथ शामिल हैं। शायद इसीलिए उनके अनुसार यह तमाम अफसाना खिसकी बंदियों का है।

कुछ अध्यायों में विभक्त यह संस्मरण-यात्रा Ve Nayaab Aurtein किसी कालक्रम की अवधारणा के हिसाब से आगे नहीं बढ़ती, बल्कि कोई भी बात किसी भी समय कैसे भी मौजूदा प्रसंग को अवतांर करती सामने आ जाती है। बहुस्तरीय और एक ही तुरपाई में कई गांठों को खोलने का सलीका यहां मौजूद है, जो उनके विगत को वर्तमान करता है और अक्सर वर्तमान को दूर किसी अतीत में ले जाकर समकालीन सवालों के साथ नया, आधुनिक और ज्वलन्त बना डालता है।

यह किताब Ve Nayaab Aurtein कुछ अद्भुत औरतों का बखान है, हालांकि उसी के समकक्ष पुरूष का चरित्र भी अपनी सम्पूर्णता, चारित्रिक, विविधता के साथ हमजोली की तरह बने हुए हैं। ऐसी स्त्रियां, जिनकी करूणा, पुकार, आर्तनाद, सिसकियां, चुप्पी, दर्द और मानसिक यातना के ढेरों रंग जब तब बनते बिगड़ते और तिरोहित होते जाते हैं। फिर वह स्वर्णा जी आया हों या स्वयं उनकी मां, नई दादी या भाभी जी, बहनें सभी का एकान्त और सार्वजनिक जीवन कलात्मक ढंग से शाया हुआ है।

प्रसिद्ध कथाकार मंजुल भगत, जो मृदुला गर्ग की बहन थीं, पर हमेशा ही उनका लिखा हुआ पढ़ना सजल और मार्मिक होता है। यहां भी ‘चितकोबरा और अनारो’ की लेखिकांए जैसे अपना सबसे सन्दुर भाव साझा करती हैं।

कुछ-कुछ गुलजार की फिल्म नमकीन के स्त्री किरदारों के रिश्तों की तरह… कथानक का जायका तो पढ़कर ही आत्मसात किया जा सकता है, बस इतना इशारा भर करना काफी होगा कि एक ऐसे युग में जब एकल परिवारों और व्यक्ति के अकेलेपन पर आकर जीवन रूक गया हो, यह संस्मरण Ve Nayaab Aurtein लेखा उन सभी मौसियों, मामियों, भाभियों, सहेलियों के आख्यानों तक जाता है, जिसमें एक अजीब किस्म की आदिम महक बसी हुई है।

ऐसी देशज और अभिजात्य भारतीयता के बीच अन्तरंग में झाकने पर आज भी कुछ ऐसे सवाल मिल जाते हैं, जिनके जवाब शायद किसी के पास नहीं हैं। Ve Nayaab Aurtein समझदारी से भरी हुई यादों की गठरी।
स्त्रोत-
1. पुस्तक Ve Nayaab Aurtein के पन्नें से (आनलाईन अमाजॉन से खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें)
2. दैनिक जागरण

Samiksha Thakur द्वारा सम्पादित Tumhara Nanoo 

By admin

One thought on “Ve Nayaab Aurtein”
  1. […] यह उपन्यास Aandhari एक व्यक्ति के बहाने उस विकास के लिए प्रयत्नशील संघर्ष को रेखांकित करता है, जिसमें एक ही कालावधि में मौजूद कई पीढ़ियां भारतीय परिवार की जकड़न से बाहर निकलने की कोशिश में निरन्तर संलग्न हैं। इसी मंे मूल्यों और सम्बन्धों की मुठभेड़ होती है, जो कई बार रिश्तों की जीवन्तता को हमारे आंखों के सामने लील लेती है। विलुप्त होती जाती मनुष्यता और परिवार के आन्तरिक जीवन के रोजनामचे को एक ही समीकरण से हल करने की असाधारण कोशिश हैं-‘‘आंधारी’’। हमारी सभ्यता के प्रश्नों से जूझने के लिए कुछ निराशा और कुछ विस्मय से होने वाला क्लब हाउस डिस्कशन’ भी है यह उपन्यास….। स्त्रोतः- 1. उपन्यास Aandhari के पन्नों से (आनलाईन अमाजॉन से खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें) 2. दैनिक जागरण इन्टरलन लिंक वे नायाब औरतें […]

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