भारत का संवैधानिक विकास

किसी भी देश के संविधान की रचना मात्र एक दि न की उपज नहीं होती है बल्कि संविधान एक सतत् विकास का परिणाम होता है। भारत का संवैधानिक विकास का काल सन् 1599 ई0 से शुरू होता है तथा उसी समय ब्रिटेन में ईस्ट कम्पनी की स्थापना भी हुई थी।

  • ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 1599 ई0 में हुई। महारनी एलिजाबेथ ने एक राजलेख द्वारा 15 वर्षो के लिए व्यापार का अधिकार दिया, जिसे 1599 ई0 का चार्टर कहा गया।
  • राजलेख द्वारा कम्पनी को समस्त पूर्वी देशों में व्यायापार का एकमेव स्वामित्व सौंपा गया। तथा कम्पनी की समस्त शक्तियां 24 सदस्यीय परिषद में निहित थी।
  • 1726 के राजलेख द्वारा कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी के गवर्नरों को विधि बनाने की शक्ति सौंपी गयी।
  • 1726 के चार्टर के द्वारा भारत स्थिति कंम्पनी को नियम, उपनियम तथा अध्यादेश जारी करने की शाक्ति प्रदान की गयी।

1773 का रेग्यूलेटिंग ऐक्ट

  • ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं कुप्रशासन को दूर करने के लिए 1773 ई0 को रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
  • ऐक्ट के तहत मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेन्सियों को कलकत्ता प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया। जिसका प्रमुख ऐ गवर्नर जनरल होता था। गवर्नर जनरल का नियंत्रण अपूर्व था।
  • गवर्नर जनरल की परिषद में चार सदस्य थे। सम्पूर्ण कलकत्ता प्रेसीडेन्सी का प्रशासन तथा सैनिक शक्ति इसी सरकार में निहित थी।
  • रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा कलकत्ता में एक सुप्रीमकोर्ट की स्थापना की गयी। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अपर न्यायाधीश होते थे।
  • रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा पहली बार ब्रिटिश मण्डल को भारतीय मामलों में नियंत्रण का अधिकार दिया गया जो कि अपूर्ण था।
  • गवर्नर जनरल की परिषद को फोर्ट विलियम बस्ती के प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिए भी शक्ति प्राप्त थी।
  • ऐक्ट आफ सेटेलमेंट, 1781 रेग्यूलेटिंग एक्ट की त्रुटियों को समाप्त करने के लिए लाया गया।
  • ऐक्ट के तहत कलकत्ता के गवर्नर को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दिया गया।

पिट्स इंडिया एक्ट1784

  • ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के उद्देश्य से 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया।
  • पिट्स इंडिया एक्ट ने कम्पनी के व्यापारिक एवं राजनीतिक कार्य-कलापों को एक दूसरे से अलग कर दिया।
  • पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को ही लेकर लार्ड नार्थ तथा फाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग पत्र देना पड़ा।
  • यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
  • कम्पनी के वाणिज्य सम्बन्धी विषयों को छोड़कर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों को एक नियंत्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया।
  • तीन डाइरेक्टरों की एक समिति बोर्ड के सभी मुख्य आदेश भारत को भेजे जाते थे।
  • अधिनियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधीन कर दी गयी।
  • नियम द्वार द्वैध शासन की शुरूआत हुई जो 1858 तक विद्यमान रही। एक कम्पनी के द्वारा तथा दूसरा संसदीय बोर्ड के द्वारा।
  • अधिनियम के तहत इंग्लैंड में सरकार का विभाग बनाया गया जिसे नियंत्रण बोर्ड (Board of Control) कहते थे। जिसका मुख्य कार्य डाइरेक्टर्स की नीति को नियंत्रित करना था।

1786 का अधिनियम

  • पिट ने 1786 में यह अधिनियम पारित करवाया जिसका प्रमुख उद्देश्य कार्नवालिस को भारत के गवर्नर जनरल के पद के लिए तैयार करना था।
  • अधिनियम के तहत मुख्य सेनापति की शक्तिं भी गवर्नर जनरल में निहित कर दी गयी।
  • गवर्नर जनरल विशेष अवस्था में परिषद के निर्णयों को रद्द कर सकता था तथा उसे लागू भी कर सकता

1793 का चार्टर एक्ट

  • 1793 ई0 में एक चार्टर एक्ट पारित किया गया जिसके द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया।
  • गवर्नर जनरल का बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियों पर अधिकार स्पष्ट कर दिये गये।
  • यदि गवर्नर जनरल बंगाल के बाहर जाता था तो उसे अपनी परिषद के असैनिक सदस्य मंे से किसी एक को उपप्रधान नियुक्त करना होता था।
  • मुख्य सेनापति को गवर्नर-जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिकार समाप्त हो गया। इन सभी सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से मिलता था जो 1919 तक जारी रहा।

1813 का चार्टर एक्ट

  • समकाली यदभाव्यम् के सिद्वान्त तथा अग्रेजों के युरोपीय व्यापार बन्द होने के कारण से कम्पनी के व्यापारिक अधिकार को समाप्त करने के लिए 1813 का चार्टर एक्ट लाया गया।
  • 1813 के चार्टर एक्ट के द्वारा कम्प्नी के भारतीय व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया।
  • यद्यपि चीन तथा चाय के व्यापार का एकाधिकार चलता रहा।
  • प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की गयी थी।
  • 1813 के चार्टर के द्वारा नियंत्रण बोर्ड की अधीक्षण तथा नियंत्रण शाक्ति को न केवल परिभाषित किया गया अपितु उसका विस्तार भी किया गया।
  • एक्ट के तहत एक लाख रूपया प्रतिवर्ष विद्वान भारतीयों के प्रोत्साहन तथा साहित्य के सुधार तथा पुनुरूत्थान के लिए रखा गया।

1833 का-चार्टर एक्ट

  • 1833 के चार्टर एक्ट पर, इंग्लैंड की औद्योगिक क्रान्ति, उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फेयर के सिद्वान्त की छाप थी।
  • एक्ट ने कम्पनी को अगले 20 वर्षो के लिए नया जीवन दिया। तथा उसे एक ट्रस्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
  • कम्पनी के वाणिज्यिक अधिकार समाप्त कर दिये गये तथा उसे भविष्य में केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे।
  • अधिनियम ने कम्पनी के डायरेक्टरों के संरक्षण को कम किया।
  • अधिनियम के द्वारा भारतीय प्रशासन का केन्द्रीयकरण किया गया। बंगाल का गवर्नर अब भारत का गवर्नर जनरल बना।
  • अधिनियम द्वारा भारत में दासता को अवैध घोषित किया गया।
  • सभी कर सपरिषद गवर्नर-जनरल की आज्ञा से ही लगाये जा सकते थे। इस प्रकार प्रशासन तथा वित की सारी शाक्ति गवर्नर जनरल और उसकी परिषद में केन्द्रित हो गयी।
  • अधिनियम के द्वारा कानून बनाने के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद में एक कानूनी सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित किया गया।
  • सर्वप्रथम मेकाले को विधि सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में सम्मिलित किया गया।
  • केवल सपरिषद गवर्नर-जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने के अधिकर प्राप्त थे।
  • भारतीय कानूनों को संचित लिपिबद्व तथा सुधारने के उददेश्य से एक विधि आयोग का गठन किया गया।
  • अधिनियम के द्वारा कम्पनी के चीन से व्यापार तथा चाय सम्बन्धी व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया।
  • गवर्नर जनरल को ही विधि आयुक्त को नियुक्त करने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • अधिनियम के द्वारा नियुक्तियों के लिए योग्यता सम्बन्धी मापदंड को अपना कर, भेदभाव समाप्त किया गया।
  • अधिनियम द्वारा बंगाल का गवर्नर-जनरल को समूचे भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया।

1853 का चार्टर एक्ट

  • चार्टर ने कार्यपालिका तथा विधायी शक्तियों को पृथक करने का एक निश्चित कदम उठाया। भारत वर्ष के लिए एक पृथक विधान-परिषद की स्थापना की गयी।
  • विधान परिषद में 12 सदस्य होते थे। कमान्डर-इन-चीफ, गवर्नर-जनरल-के चार- सदस्य और 6 सभासद विधान-परिषद के सदस्य होते है।
  • अन्य 6 सदस्यों में बंगाल के मुख्य न्यायाधीश, कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट का एक न्यायाधीश और बंगाल-मद्रास, बम्बई और आगरा चार प्रान्तों के प्रतिनिधि शामिल थे।
  • भारतीय विधान परिषद में सर्वप्रथम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्वान्त पारित किया गया।
  • विधान परिषद द्वारा पारित विधेयकों को गवर्नर-जनरल वीटो कर सकता है।
  • विधि सदस्य को गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
  • 1853 के अधिनियम ने ही सर्वप्रथम सम्पूर्ण भारत के लिए एक-विधान मण्डल (All India Legislative Council) की स्थापना की।
  • अधिनियम ने कम्पनी डायरेक्टरों से नियुक्ति सम्बन्धी अधिकार वापस ले लिया जिससे डायरेक्टरों का संरक्षण भी समाप्त हो गया।

1858 का अधिनियम

  • कम्पनी की दोहरी शासन-व्यवस्था को समाप्त करने के लिए 1858 में ब्रिटिश सरकार ने एक अधिनियम पारित किया।
  • अधिनियम को-“1858 एक्ट फॉर दी बेटर गवर्नमेंट आफ इंडिया” से पारित किया गया।
  • 1858 के अधिनियम ने भारत के शासन को कम्पनी के हाथों से निकाल कर सम्राट के हाथ में आ गया।
  • भारत का प्रशासन साम्रज्ञी द्वारा नियुक्त 185 सदस्यीय एक परिषद को सौंप दिया गया, जिसका अध्यक्ष मुख्य राज्य सचिव या भारत-राज्य सचिव के नाम से विभूषित किया गया।
  • राज्य सचिव को डायरेक्टर्स के बोर्ड तथा नियंत्रण बोर्ड, दोनों बोडों की संयुत शाक्तियां मिल गयी ।
  • 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट दूारा लागू द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर दी गयी।
  • राज्य सचिव की 15 सदस्यीय परिषद में से 8 की नियुक्ति क्राउन के द्वारा तथा 7 की डारेक्टरर्स के बोर्ड द्वारा होनी थी।
  • अधिनियम में एक महत्वपूर्ण व्यवस्था यह थी कि इन सदस्यों में से कम से कम आधे ऐसे लोग हो जो भारत में 10 वर्ष तक सेवा कर चुकें हों।
  • भारत के गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय की उपाधि मिली, जो क्राउन का सीधा प्रतिनिधि था।
  • राज्य-सचिव को भारत से प्राप्त मालगुजारी का लेखा प्रतिवर्ष संसद के सामने प्रस्तुत करना पड़ता था। उसे भारत के नैतिक एवं भौतिक विकास की रिपोर्ट भी संसद को देनी पड़ती थी।
  • राज्य सचिव ब्रिटिस मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता था, इसलिए वह ब्रिटिश संसद के प्रति वह उत्तरदायी था।
  • कन्वेटेड सिविल सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी।

1861 का भारत परिषद अधिनियम

  • विधि निर्माण की त्रुटिपूर्ण प्रणाली वाइसराय की निषेधात्मक शाक्ति (Veto power) तथा विधान परिषद में भारतीयों का न के बराबर प्रतिनिधित्व आदि कारणों ने 1861 के भारत परिषद अधिनियम की पृष्ठभूमि तैयार।
  • सन् 1861 के अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं को जन्म।
  • वाइसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवे सदस्य के रूप में एक विधिवेत्ता को शामिल किया गया ।
  • वाइसराय लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
  • लार्ड कैंनिंग ने भिन्न-भिन्न सदस्यों को अलग-अलग विभाग सौप कर एक प्रकार से मन्त्रिमण्डलीय व्यवस्था की नींव डाली।
  • वाइसराय की विधान परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर न्यूनतम संख्या 6 और अधिकतम 12 निर्धारित।
  • वाइसराय मनोनीत करेगा तथा इनकी अवधि 2 वर्ष के लिए रख गयी।
  • नामांकित सदस्यों में से आधे सदस्य गैर सरकारी सदस्य होते थे। इनका कार्यकाल दो वर्ष का होता था।
  • विधान परिषद की शक्ति अत्यन्त सीमित थी। सदस्यों को प्रशासन अध्यक्ष वित्त सम्बन्धी प्रश्नों को पूंछने का कोई अधिकर नहीं था।
  • वाइसराय को संकटकालीन समय में विधान परिषद की सलाह के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति प्राप्त थी।
  • अध्यादेशों की क्रियाशीलता को केवल 6 मास के लिए निर्धारित किया गया।
  • वायसराय को विधान परिषद द्वारा परित विधियों को वीटो करने की शक्ति प्राप्त थी। ब्रिटिश संसद किसी भी विधि को अस्वीकृत कर सकती थी।
  • अधिनियम के द्वारा वाइसराय को नये प्रान्तों की स्थापना तथा उनकी सीमाओं में परिवर्तन का अधिकार भी प्राप्त हो गया।

1892 का भारत परिषद अधिनियम

  • 1857 की राज्य क्रान्ति के फलस्वरूप भारतीयों में पनपी राष्ट्रीयता, 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा इलवर्ट बिल विवाद आदि घटनाओं ने 1892 के भारत परिषद अधिनियम पारित करने के लिए अंग्रेजों को बाध्य किया।
  • अधिनियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्वि ।
  • केन्द्रीय विधानपरिषद में न्यनतम 10 तथा अधिकतम सदस्य संख्या 16 निर्धारित ।
  • वाइसराय को सदस्यों के नामांकन का अधिकार सुरक्षित रखा।
  • परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया।
  • प्रान्तीय विधानमण्डलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिनियम द्वारा न्यनतम 8 तथा अधिकतम 20 अतिरिक्त सदस्यों द्वारा बढ़ा दी गयी।
  • सदस्यों को सार्वजनिक हित के मामलों में 6 दिन की सूचना देकर प्रश्न पूछने का भी अधिकार दिया गया।
  • अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान चुनाव पद्वति की शुरूआत।
  • भारतीय विधान मण्डल के सदस्यों को नगरपालिकायें जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मण्डल निर्वाचित करते थे।
  • निर्वाचन की पद्वति पूर्णतया अप्रत्यक्ष थी तथा निर्वाचित सदस्यों को “मनोनीत” की ही संज्ञा दी जाती थी।
  • अधिनियम में चुनाव प्रणाली को तो स्वीकार किया गया था, परन्तु स्पष्ट ढंग से नहीं। विधानमण्डलों की शक्तियां बहुत सीमित थी, सदस्यों को अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था।
  • चुनाव की विधियां संताषजनक नहीं थी। यह अधिनियम अखिल भारतीय कांग्रेस की मांगों से काफी कम था फिर भी एक सकारात्मक प्रयास था।

1909– का भारतीय परिषद एक्ट अथवा मिन्टो-मारले सुधार

  • नवम्बर, 1906 में लार्ड कर्जन के स्थान पर लार्ड मिन्टों को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया तथा जॉन मॉरले को भारत सचिव।
  • माँरले उदारवादी विचारों के व्यक्ति थे तथा भारतीय प्रशासन में सुधारों के समर्थक थे। तथा भारत के वायसराय लार्ड मिन्टों, भारत सेक्रेटरी माँरले के विचारों से सहमत थे।
  • इसलिए इनके द्वारा किये गये सुधारों को मालें मिन्टों के सुधार के नाम से जाना जाता है।
  • 1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को विधि-निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व प्रदान किया।
  • केन्द्रीय विधान सभा में सदस्यों की संख्या 60 कर दी गयी। विधान मण्डल में 69 सदस्य जिनमें से 37 शासकीय सदस्य 32 गैर शासकीय वर्ग ।
  • 32 गैर सरकारी सदस्यों में से 27 सदस्य निर्वाचित होते थे और पांच नाम जद। निर्णायक मण्डल को तीन भागों में बाँटा गया था-सामान्य निर्वाचक वर्ग, वर्गीय निर्वाचक वर्ग तथा विशिष्ट निर्वाचक वर्ग।
  • अधिनियम ने केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधायनी शक्ति को बढ़ा दिया परिषद् के सदस्यों को बजट की विवेचना करने तथा उस पर प्रश्न करने का अधिकार दिया गया।
  • बंगाल मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी की संख्या बढ़ाकर 4 कर दी गयी। उप राज्यपालों को भी अपनी कार्यकारणी नियुक्त करने की अनुमति दी गयी।
  • परिषद के सदस्यों को विदेशी सम्बन्धों तथा देशी राजाओं से सम्बन्धों कानून के सामने निर्णय के लिए आये प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं ।
  • अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गयी।
  • लार्ड मिन्टों ने पृथक निर्वाचक मण्डल स्थापित करके लार्ड माँरले को लिखा था-“हम नाग के दांत (Dragon’s Teath) बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा।“
  • अधिनियम के द्वारा स्थापित चुनाव प्रणाली बहुत ही अस्पष्ट तथा जनप्रतिनिधित्व के विरूद्व।
  • अधिनियम में मताधिकार के सम्बन्ध में हिन्दुओं के साथ अन्याय किया गया।
  • प्रान्तों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत दिखावा मात्र था क्योंकि सरकारी और मनोनीत गैर सरकारी सदस्य मिलकर बहुमत में हो जाते थे।

1919- का भारत सरकार अधिनियम (मॉण्ट-फोर्ड सुधार)

  • 1919 के अधिनियम का तात्कालिक कारण 1916 का होमरूल आन्दोलन तथा मेसोपोटेमिया कमीशन का रिपोर्ट थी।
  • 1919 के अधिनियम का प्रयत्न था कि किस प्रकार भारत के एक प्रभावशाली वर्ग को कम से कम दस वर्ष के लिए ब्रिटिश राज कस समर्थक बना लिया जाय।
  • अधिनियम में पहलीबार “उत्तरदायी-शासन” शब्दों का स्पष्ट प्रयोग किया गया जिसमें भारत में तनावपूर्ण वातावरण को कुछ समय के लिए शान्त बना दिया।
  • प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी शासन तथा द्वैध शासन की स्थापना।
  • 1793 ई0 से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था, इस अधिनियम के द्वारा अब वह अंग्रेजी राजा से मिलन तय किया गया।
  • केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिक प्रभावशाली भूमिका दी गयी। वाइसराय के 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किये गये और विधि, शिक्षा, उद्योग आदि विभाग सौंपे गये।
  • अधिनियम के अनुसार सभी विषयों को केन्द्र तथा प्रान्तों में बांटा गया।
  • केन्द्रीय सूची में वर्णित विषयों पर सपरिषद गवर्नर जनरल का अधिकार था। जैसे-विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार, सार्वजनिक ऋण आदि।
  • प्रान्तीय सूची के विषय थे-स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, जल संभरण, अकाल सहायता, कृषि व्यवस्था आदि।
  • सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित।
  • अधिनियम के तहत केन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित, पहले सदन का राज्य परिषद तथा दूसरे को केन्द्रिय विधान सभा कहा गया ।
  • राज्य- परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निंक्षित की गयी । जिसमें 34 निर्वाचित तथा शेष 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होते थे।
  • राज्य परिषद का प्रतिवर्ष नवीनीकरण होता था, परन्तु सदस्य 5 वर्ष के लिए बनते थे।
  • निम्र सदन को केन्द्रिय विधान सभा का नाम दिया गया । इसमें सदस्यों की संख्या 145 निर्धरित की गयी । 104 निर्वाचित तथा 41 सदस्य मनोनीत।
  • मनोनीतों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय।
  • सभा कार्यकाल त्रिवर्षीय था, वायसराय इसके कार्यकाल को बढ़ा भी सकता था।
  • द्विसदनीय केन्द्रिय विधानमण्डल को प्रयास शाक्तियां दी गयी थी, यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी ।
  • सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी प्रश्न तथा पूरक प्रश्नों पर कोई रोक नहीं थी । सदस्यों को बोलने का अधिकार तथा स्वतन्त्रता थी ।
  • गर्वनर -जनरल क्राउन की अनुमति से कोई भी बिल पारित कर सकता था । वह अध्यादेश जारी कर सकता था । जिसकी वैधता 6 माह की होती थी।
  • विधेयक के तहत प्रान्तो में द्वैध शासन प्रणाली लागू । प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बांटा गया था । आऱिक्षत तथा हस्तान्तरित विषय।
  • प्रान्तीय परिषदों में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित तथा शेष मनोनीत होते थे। शासकीय सदस्यों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होती थी।
  • 1919 के अधिनियम के द्वारा पंजाब में सिखो कुछ प्रान्तों में यूरोपियनों, एग्लों इंडियानों को था भारतीय ईसाइयों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया।
  • अधिनियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गयी और मताधिकार 3 प्रतिशत से 10 प्रतिशत कर दिया गया।

भारत शासन अधिनियम-1935

  • 1935 के अधिनियम द्वारा सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना।
  • संघ को ब्रिटिश भारतीय प्रान्त कुछ भारतीय रियासतें जो संघ में शामिल होना चाहती थी, मिलाकर बनाया गया।
  • 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैध शासन लागू।
  • केन्द्रीय सरकार की कार्यकारणी शक्ति गवर्नर जनरल में निहित।
  • संघ में प्रशासन के विषय दो भागों में विभक्त थे-1 हस्तान्तरित 2-रक्षित।
  • रक्षित विषयों में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक विषय और जनजातीय क्षेत्र सम्मिलित, बाकी सारे विषय हस्तान्तरित ग्रुप में आते थे।
  • सन् 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान।
  • प्रान्तीय विषयों पर विधि बनाने का अधिकार प्रान्तों को दिया गया था, केन्द्रीय सरकार का कार्य एक प्रकार से संघात्मक होता था।
  • प्रान्त की कार्यपालिका शाक्ति गवर्नर में निहित थी तथा वह इसका प्रयोग ब्रिटिश सरकार की तरफ से करता था।
  • गवर्नर जनरल के सभी कार्य, मंन्त्रिपरिषद की सलाह से होते थे, वह विधान सभा के प्रति उत्तरदायी था।
  • केन्द्रीय विधान मण्डल में दो सदन थे-विधानसभा तथा राज्य परिषद।
  • विधान सभा में 375 सदस्य थे, 250 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों से तथा 125 सदस्य भारतीय रियासतों से।
  • विधान सभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता था गवर्नर जनरल को विघटित करने की शक्ति प्राप्त थी।
  • 1935 के अधिनियम द्वारा बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक कर दिया गया, दो नये प्रांत सिंध और उड़ीसा का निर्माण हुआ।
  • राज्य परिषद में कुल 260 सदस्य होते थे जिनमें से 104 ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि, 104 भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होते थे।
  • राज्य परिषद एक स्थायी संस्था थी, जिसके एक तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते थे।
  • केन्द्रीय विधान मण्डल की शक्तियां अत्यन्त सीमित थी। गवर्नर-जनरल अपने विवेकानुसार एक साथ दोनों सदनों को आहूत कर सकता था, सत्रावसान कर सकता था तथा उसका विघटन भी कर सकता था। उसे विधेयकों पर वोटों की शाक्ति प्राप्त थी।
  • धन विधेयक पर विधानसभा की शक्ति अत्यन्तिक थी।
  • किसी विधेयक पर गतिरोध की दशा में गवर्नर जनरल संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था।
  • 1935 के अधिनियम के द्वारा कुछ प्रान्तों में द्विसदनात्मक व्यवस्था।
  • उच्च सदन विधान परिषद तथा निम्र सदन विधान-सभा कहलाता था।
  • प्रान्तों की कार्यपालिका का गठन गवर्नर तथा मन्त्रिपरिषद के द्वारा होता था।
  • गवर्नर को तीन प्रकार की शक्तियां प्राप्त थी (1) विवेकीय शक्तियां (2) विशिष्ट उत्तरदायित्व की शक्तियां (3) मन्त्रिमण्डल की सलाह से प्रयुक्त शक्तियां।
  • प्रान्तीय सूची में समाविष्ट सभी विशयों पर प्रान्तीय विधान मण्डलों को विधि बनाने की आत्यान्तिक शक्ति थी।
  • ये समवर्ती विषयों पर भी विधि बना सकते थे।
  • वित्तीय विधेयक गवर्नर की पूर्व अनुमति से ही पेश किये जाते थे।
  • कोई भी विधेयक बिना गवर्नर की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था।
  • किसी ऐसे विधेयक पर जिसको गवर्नर की अनुमती प्राप्त थी सम्राट उसको अस्वीकृत कर सकता था।
  • अपनी विवेकीय शक्ति एवं व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के परिणाम स्वरूप गवर्नर एक तानाशाह का कार्य करता था।
  • 1935 के अनिधनियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गयाय था-संघ सूची, प्रान्तीय सूची तथा समवर्ती सूची।
  • संघ सूची के कुल 59 विषय। अखिल भारतीय हित के विषय इसमें आते थे।
  • प्रान्तीय विषय में 54 थे। स्थानीय महत्व के मुद्दे शामिल।
  • समवर्ती सूची में 36 विषय, जिसमें मुख्यातया प्रान्तीय हित के विषय।
  • अवशिष्ट शक्तियों पर अन्तिम निर्णय गवर्नर जनरल को था।
  • विधियों में असंगति की स्थिति में केन्दीय विधि, प्रान्तीय विधि पर अधिभावी थी।
  • 1935 के अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना।
  • फेडरल न्यायालय के विरूद्व अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
  • संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिकारिता प्राप्त थी-प्रारम्भिक अपीलीय तथा परामर्श दा़त्री।
  • प्रारम्भिक अधिकारिता के अन्तर्गत संघीय न्यायालय संविधान के उपबन्धों का निर्वाचन करता था। या उससे सम्बन्धित विवादों का।
  • अपीलीय अधिकारिता के अन्तर्गत संघ न्यायालय भारत स्थित सभी उच्च न्यायालयों के विनिश्चयों से अपीलों की सुनवायी करता था।
  • संघीय न्यायालय को सिविल और दांडिक मामलों में अपीलीय अधिकारिता नहीं दी गयी थी।
  • परामर्श दात्री अधिकारिता के अन्तर्गत गवर्नर जनरल को विधि एंव तथ्य का किसी विषय पर सलाह देने का अधिकार प्राप्त था।
  • नेहरू ने 1935 के अधिनियम के बारे में कहा कि ’यह अनेक ब्रेको वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।

 

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