संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय
अनुच्छेद 142 की उपधारा 1 में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय अपने अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लम्बित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद द्वारा बनायी गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबन्ध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करें, प्रवर्तनीय होगा।
अनुच्छेद 142 का दायराः सम्बन्धित निर्णय
यद्यपि अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्त्यिां काफी व्यापक हैं, इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में इसकी सीमा और दायरे को परिभाषित किया है।
प्रेम चन्द गर्ग बनाम आबकारी आयुक्त, उत्तर प्रदेश (1962)
इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 142(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्यिों के प्रयोग के लिए सीमाएं निर्धारित की।
- इस मामले में अदालत ने कहा है कि पूर्ण न्याय करने के लिए यह अदालत जो भी आदेश देगी, वो न केवल संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारांे के अनुरूप होने चाहिए, बल्कि प्रासंगिक वैधानिक कानूनों के मूल प्रावधानों के साथ असंगत भी नहीं होने चाहिए।
- पीठ ने इस वाद में कहा है कि यह मानना सम्भव नहीं होगा कि अनुच्छेद 142(1) सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी शक्तियां प्रदान करता है जो अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचार का अधिकार) के प्रावधानों का उल्लंघन कर सकती है।
- एआर अंतुले बनाम आरएस नायक केस 1988ः इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेम चंद केस में अदालत की राय को बरकरार रखा। न्यायालय ने यह आदेश दिया कि शीघ्र विचारण की दृष्टि से भ्रष्टाचार से सम्बन्धित सभी आदेश मामले मुंबई उच्च न्यायालय को अन्तरित हो जाएगें और वहीं उनका विचारण होगा।
- यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन बनाम भारत चंद वाद 1991ः इसमें कम्पनी को भोपाल गैस आपदा के मुआवजे के रूप में 470 मिलियन डॉलर का भुगतान करने का आदेश देते हुए पीठ ने अनुच्छेद 142(1) के व्यापक दायरे को रेखांकित करते हुए कहा कि इस अनुच्छेद के तहत सर्वोच्च न्यायालय को शक्तियों के दायरे के सम्बन्ध में कुछ गलतफहमियों को दूर करना आवश्यक है।
- अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्ति पूरी तरह से अलग स्तर की और अलग गुणवत्ता है।
- सामान्य कानूनों में निहित प्रावधानों पर जिस तरह के प्रतिबन्ध होते हैं, वे अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त संवैधानिक अधिकारों पर लागू नहीं हो सकते तथा यह कहना पूरी तरह से गलत होगा कि अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त अधिकार व्यक्त वैधानिक प्रतिबन्धों के अधीन हैं।
- अगर ऐसा होता है, तो इससे यह प्रतीत होगा कि संवैधानिक प्रावधान वैधानिक प्रावधान के अधीन हैं।
- सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद, 1998ः इस मामले में अदालत ने फेसला दिया था कि अनुच्छेद 142 के तहत इसकी शक्तियां प्रकृति में पूरक हैं और मूल कानून की प्रतिस्थापित नहीं कर सकती। अनु0 142 के अधीन शक्ति का प्रयोग करते समय न्यायालय को विद्यमान विधि के अधीन वादकारी के अधिष्ठायी अधिकारों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इस शक्ति का प्रयोग करके किसी मामले को लागू विधि के स्थान पर कोई दूसरी अधिष्ठायी विधि स्थापित नहीं की जा सकती है।
- हालांकि अनुच्छेद 142 द्वारा न्यायालय को प्रदत्त शक्ति प्रकृति में उपचारात्मक है।
- यह शक्ति इस प्रकार की नहीं मानी जा सकती जो अदालत को उसके समक्ष लम्बित किसी वाद की सुनवाई के दौरान वादी के मूल अधिकारों की अनदेखी करने के लिए अधिकृत करे।
अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को विशाल शक्ति प्रदान करता है किन्तु
- न्यायालय किसी अधिनियम द्वारा विहित अवधि का आधित्यजन या उपेक्षा नहीं कर सकता।
- वह किसी अधिनियम द्वारा विहित न्यूनतम दण्ड से कम दण्ड अधिरोपित नहीं कर सकता।
- न्यायालय का आदेश मूल अधिकारों से संगत होना चाहिए।
- इसका आदेश किसी अधिनियम के विपरीत नहीं होना चाहिए।
- इस शक्ति का प्रयोग केवल समवेदना के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए।
18 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में ए.जी.पेरारिवलन को रिहा करने का आदेश दिया।
- न्यायामूर्ति एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली पीठ ने पेरारिवलन की लम्बी अवधि की कैद (30 साल से अधिक) को ध्यान में रखते हुए इस रिहाई का आदेश जारी किया।
- ए.जी.पेरारिवलन को वर्ष 1998 में मृत्यु दण्ड की सजा टाडा अदालत ने सुनाई थी तथा सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1999 में इस सजा को बरकरार रखा था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 फरवरी, 2014 को मामले के अन्य दोषियों के साथ पेरारिवलन की इस सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था।
- शीर्ष अदालत ने इससे पहले भी कई राष्ट्रीय महत्व के हाई प्रोफाइल मामलों में अनुच्छेद 142 को लागू किया है, इनमें 1989 का यूनियन कार्बाइड मामला और 2019 का अयोध्या राम मन्दिर का फैसला शामिल है।
निर्णय के मुख्य बिन्दु
अदालत ने माना कि 9 सितम्बर, 2018 को पेरारिवलन को क्षमादान प्रदान करने के लिए तमिलनाडु मंत्रिपरिषद की सलाह संविधान के अनुच्छेदत 161 (राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति) के तहत राज्यपाल पर बाध्यकारी थी।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल द्वारा क्षमा याचिका पर निर्णय लेने में की गई देरी तथा अनिच्छा ने अदालत को इस मामले में अनुच्छेद 142 के तहत अपती संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया।
- केन्द्र के इस तर्क को अदालत ने खारिज कर दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या के लिए सजा) के तहत किसी मामले में क्षमादान देने की शक्ति विशेष रूप में राष्ट्रपति को प्राप्त है न कि राज्यपाल को।
- पीठ ने इस मामले में कहा कि यह तर्क अनुच्छेद 161 को एक अप्रचलित कानून बना देगा तथा पिछले 70 वर्षों में हत्या के मामलों में राज्यपालों द्वारा दिए गए क्षमादान पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देगा।
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