छात्राओं की आत्महत्याओं की बढ़ती तादाद बताती है कि इसे रोकने के लिए व्यापक नीतियों और समाज के संवेदनशील सहारे की जरूरत है। जिससे जो ऊर्जा युवाओं में दम तोड रही है उसे बचाये जा सके।

देखने पर यह लगता है कि आत्महत्या के पीछे अलग कारण है और अलग परिस्थितियाँ हैं। लेकिन जिन छात्राओं ने जिन्दगी की जंग में कदम ही नहीं रखा वे पहले ही हिम्मत हार जाए, इसका गहरा विश्लेषण और व्यापक स्तर पर उपाय जरूरी हैं। युवावस्था ऊर्जा, जोश और उम्मीदों की उम्र होती है और इस उम्र के इन्सान के बारे में यह माना जाता है कि वह युवा ऊर्जा और दमखम से भरा होगा। लेकिन जब इस जोश और इन उम्मीदों को बहुत भौतिक किस्म पैमानों पर कसा जाता है तो ऊर्जा और दमखम टूटने लगता है। दिक्कत यह है कि हमने सफलता के बहुत ही व्यावहारिक और संकीर्ण किस्म के पैमाने बना रखे हैं।
पढाई में अव्वल रहना, अच्छे शिक्षण संस्थान में प्रवेश, अच्छी नौकरी, बहुत सारा पैसा, सुख-सुविधाएँ हमारे वक्त में सफलता के पैमाने बहुत सी सीमित हैं और सबसे बड़ा मूल्य सफलता ही है। ऐसे में जो इन पैमाने पर खरे नहीं उतरते, अनकी हिम्मत जवाब देने लगती है। दूसरी ओर, जिस परिवार और समाज को एक सहारा और आसरा देना चाहिए, वह परिवार और समाज इन तौजवानों से उनकी उन असफलताओं का हिसाब मागने लगता है या कम से कम नौजवानों को यह महसूस होता है। ऐसे में किसी सहारे के तंत्र के बिना कई नौजवान अकेला महसूस करते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं।

इसलिए आत्महत्या करने वाले छात्रों में बडी तादाद परीक्षा में असफल होने वाले या उम्मीद के मुताबिक सफलता न पाने वाले छात्रों की है। बाकी छात्रों की आत्महत्या की कहीं न कहीं किसी असफलता या आक्रोश से जुड़ी है। एक न्यायपूर्ण और संवेदनशील शासन तंत्र या समाज एक बहुत बड़ा सहारा होता है लेकिन समाज छात्र से सिंर्फ अपेक्षाए रखता है और शासन तंत्र और कुछ भी हो, संवेदशील कतई नहीं है।

भारत में दुनिया की 10 प्रतिशत आत्महत्याए होती है और जनसंख्या के अनुपात में भी यह तादाद खतरे की ओर इशारा करती है, क्योंकि यह दर तेजी से बढ़ रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण इन सारे विभागों को मिल कर कोई नीति बनानी होगी, ताकि हमारे नौजवान कच्ची उम्र में हौसले से जिए हिम्मत न हारे  जाए। लेकिन सबसे जरूरी यह है कि समाज अपना रवैया बदले। हम लोगो के पास अभी तक पश्चिमी देशों जैसी समृद्धि नहीं है, न ही हमारे यहा उतने कुशल संस्थान है, लेकिन हमारी महत्वकांक्षाए वैसी हैं और समाज में अलगाव भी फेल रहा है।
अगर हमारा समाज सिर्फ सफलता को एकमात्र पैमाना बनाता रहा तो हमारे नौजवान कुछ सार्थक करने की उम्मीद और हौसला लेकर नहीं जी पाएगे। माता-पिता, मीडिया और समाज को यह देखना होगा कि कहीं हमारी सफलता की कामना हमारे ही बच्चों को तो नहीं खा रही है ।

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