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भारतीय संविधान की उद्देशिका

  1. मुक्त राज्य अमेरिका की संविधान की Preamble, 2-पांचवें फ्रांसीसी गणतंत्र के संविधान, 1958 की Preamble, 3-यू.एस.एस.आर. के संविधान, 1977 की Preamble, और 4-जापान के संविधान, 1946 की Preamble में समरूपता है।
  • Preamble of the Constitution को कभी भी सरकार की शक्तियों का स्रोत नहीं माना गया अैार न ही इसे किसी प्रकार के प्रतिबंध या सीमा को खड़ा करने का स्रोत माना गया है।
  • भारत के Preamble of the Constitution भारतीय संविधान के आगे-आगे नही चलती जैसा कि अन्य देश अमेरिकी संविधान और उसकी उदेशिका होता है।  Preamble of the Constitution of India को संविधान में सबसे अन्त में अंगीकृत किया गया था।

स्ंविधान क्या है-

  • स्ंविधान एक आधारभूत संगठित राजनैतिक ढ़ाचा है जो अपने नागरिकों के अधिकारों और दायित्वों का निरूपण करने के साथ-साथ राज्य और उसके तीनों अंगो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों और दायित्वों का निरूपण करता है।
  • किसी देश का संविधान राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी ढ़ांचा निर्धारित करता है जिसके अंतर्गत जनता शासित होती है। यह राज्य को विधायिका, कार्यवालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगो की स्थापना करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबधों का विनिमयन करता है।
  • प्रत्येक देश का संविधान संस्थापकों तथा निर्माताओं के आदर्शो, सपनो तथा मूल्यो का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है।

Preamble

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पंन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक

गणराज्य बनाने के लिए तथा

उसके समस्त नागरिकों कोः

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,

विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म

और उपासना की स्वंन्त्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता

प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सब में

व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता

और अंखडता सुनिश्चित करने वालों बधुता

बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई0 मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते है।

  • भारतीय संविधान में न्याय की परिभाषा सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय के रूप में की गई है। स्वतंत्रता में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सम्मिलित है। समानता का अर्थ है प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता।
  • वास्तव में, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता एक वास्तविक लोेकतंत्रतामक व्यवस्था के अत्यावश्यक सहगामी तत्व है, इसलिए उनके द्वारा केवल लोकतंत्रात्मक गणराज्य की संकल्पना स्पष्ट होती है। अंतिम लक्ष्य है व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करना। इस प्रकार, उददेशिका यह घोषणा करने का काम करती है। कि ’भारत के लोग’ संविधान के मूल स्रोत है, भारतीय राज्य व्यवस्था लोकतंत्रात्मक है जिसमें लोगों को मूूल अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की गारंटी दी गई है तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित की गई है।

संशोधन

संविधान (42वा संशोधन) अधिनियम, 1976, द्वारा समाजवादी और पन्थनिरपेक्ष, और अखण्डता शब्द अंतःस्थापित किए गए।  Preamble में वे आदर्श और आकांक्षाए या उदेश्य सम्मिलित है जिन्हें संविधान निर्माता इसके प्रावधानों को अधिनियमित कर मूत्र्तरूपत्र देना चाहते थे। इसमें वे सभी मौलिक मूल्य, दर्शन और लोकाचार समाहित है जिन पर संविधान के प्रावधान आधारित है।

  • बेरूबारी केस, 1960, में उच्चतम न्यायालय ने Preamble को संविधान का अंग मानने से इंकार कर दिया था और यह निर्णय दिया कि प्रस्तावना संविधान का अंश नहीं है। अतः इसे किन्हीं तात्विक शक्तियों के स्रोत के रूप में नही मानना चाहिए। ऐसी शक्तियां संविधान की मूल काया में ही स्पष्टतः स्वीकृत है। इसका प्रयोग सीेमित है और इसका प्रयोग तभी किया जाना चाहिए जब संविधि में कोई संदिग्धता प्रतीत होती हो। संविधान के प्रतिपादन में अगर कोई संदिग्धता उपस्थित हो तो केवल वैसी ही स्थिति में इसका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन, केशवानन्द भारती केस 1973 बनाम केरल राज्य में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय को उलटते हुए कहा कि Preamble संविधान का भाग है क्योंकि जब अन्य सभी उपबन्ध अधिनियमित किये जा चुके थे उसके पश्चात उद्देशिका को अलग से पारित किया गया था। अतः Preamble की आत्मा प्रत्येक अधिनियम/संविधि में उपर्युक्त है।

उददेश्य-

  1.  संपूर्ण संविधान के स्रोत भारत की जनता है। संविधान की Preamble स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य की घोषणा करती है कि यह भारत की जनता ही है जिसने इस संविधान को अंगीकार किया है, अधिनियमित किया है और अपने को दिया है।
  2. किसी भी बाहा शक्ति का इस पर किसी प्रकार का कोई अधितत्य नहीं है।
  3. यह उन महत् अधिकारों और स्वतंत्रता की भी घोषणा करती है कि जिसे भारत के लोग अपने सभी नगरिकों को प्राप्त कराना चाहते थे और साथ ही मौलिक स्वरूप की सरकार और शासन भी जिनकी स्थापना करती थी।

क्या अनुच्छेद 368 के प्रावधानों के तहत Preamble का संशोधन हो सकता है।

  • केशवानन्द भारती केस में चूंकि प्रस्तावना संविधान का अंग है अतः इसका भी संशोधन किया जा सकता है लेकिन कोई भी संशोधन संविधान के मूल तत्व में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि हमारे संविधान की बुनियाद ही मूल तत्वों पर आधारित है। अगर इन मूल तत्वों में से किसी भी एक तत्व को हटाया जाता है तो संविधान का बुनियादी ढ़ाचा टिका नही रह सकता और ऐसी स्थिति में संविधान वह नहीं रह जाएगा औरे यह अपनी पहचान खो देगा और इसीलिए Preamble में संशोधन करने को संसद की शक्ति का इस रूप में विवेचन नहीं करना चाहिए जिसे वह प्रस्तावना के लिए किसी भी मौलिक और मूल खुबियों की नीति को उससे ले ले।

Preamble का मूल उददेश्य

(क) भारत के लोगः  सार्वभौम सत्ता अन्ततः भारत की जनता में निहित है। संविधान निर्माता वास्तव में भारतीय जनता के प्रतिनिधि थेः भारत को जनता की अनुमति /स्वीकृति ही संविधान की नींव है। भारत की जनता का महत्व इस तथ्य में निहित है कि संविधान ब्रिटिश बादशाह के बाहा रूप से और देशी रजवाड़ों के आन्तरिक रूप से, भारत की सार्वभौम सत्ता में किसी अवशेष के दावे को समाप्त कर देता है।

  • ’हम भारत के लोग’ शब्द हमें अमरीकी संविधान की Preamble के आरभिक शब्दों को याद दिलाते है। किन्तु अमरीकी संविधान की Preamble ’हम संयुक्त राज्यों के लोग’ का उल्लेख करती है। भारत के संविधान की Preamble में भारतीय संघ के राज्यों के लोगों की बात नहीं कही गई है। अमरीकी संविधान के विपरीत, हमारे संविधान को राज्यों के अनुसमर्थन की कोई जरूरत नहीं है। यह कहकर कि ’हम भारत के लोग’ इस संविधान को स्वीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है, संविधान निर्माताओं ने इस बात की निष्ठापूर्वक पुष्टि की कि हम लोग, भारत के लोग, एक है, और हम विभिन्न राज्यों आदि के लोग नही है, संप्रभुता भारत के सभी लोगों की है, न कि अलग-अलग राज्यों के लोगो की; और यह कि संविधान को राज्यों के लोगों द्वारा नही बल्कि भारत के सभी लोगों द्वारा अविभाज्य प्रभुत्वसंपन्न ईकाइ के रूप में उनकी सामूहिक हैसियत में निर्मित तथा स्वीकृत किया गया है। इस बात पर जोर देने का प्रयास किया गया था कि हमारा राष्ट्र एक है, हमारा संविधान एक है तथा हमारी राज्य व्यवस्था एक है।

(ख) संप्रभुताः

’कूले’ ने सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न राज्य की परिभाषा एक ऐसे राज्य के रूप में की है, ’जहां स्वयं उसके भीतर एक ऐसी सर्वोच्च तथा परम सत्ता विद्यमान होती है, जो किसी को भी अपने से वरिष्ठ नही मानती। ऐसा निकाय किसी नियन्त्रण या मर्यादा को नहीं मानता। प्रजाातन्त्र द्वारा जिस संविधान का सृजन किया गया है वह प्रभुत्वसंपन्न संप्रभुता के इस पारंपरिक अर्थ में आज के किसी भी राज्य को पूरी तरह प्रभुत्वसपन्न नही कहा जा सकता है। संप्रभुता एक ऐसी परिशुद्व तथा सर्वोच्च सत्ता की द्योतक है, जिस पर आंतरिक या बाहा सत्ता का कोई नियंत्रण नहीं होता । भारत में संघ तथा राज्यांे के बीच शक्तियों के विभाजन के बावजूद इसमें संप्रभुता का कोई विभाजन नहीं है। आपात स्थितियों के दौरान संघ राष्ट्रीय हित में राज्यों के अधिकार क्षेत्र को लांघ सकता है। सामान्य स्थिति के दौरान भी संघ अनुच्छेद 249 के अधीन राज्य सूची में समाविष्ट विषयों पर कानून बनाकर राज्यों के क्षेत्र पर अतिक्रमण कर सकता है। हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता अखंड तथा अविभाज्य है। कोई भी राज्य या राज्यों का समूह संविधान को रद्द नहीं कर सकता अर्थात भारतीय संविधान द्वारा स्थापित संघ से बाहर नहीं जा सकता है। संघ की अनश्वरता स्थापित करने के लिए अमरीका में गृहयुद्व जीतना पड़ा था। किन्तु हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में ही संघ की अनश्वरता का उपबंध कर दिया और राज्यों को संघ की अनश्वरता का उपबंध कर दिया और राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं दिया।

  • स्ंविधान के अनुच्छेद 1(3)(ग) में भारत संघ विदेशी राज्य क्षेत्र अर्जित कर सकता है। संघ कतिपय सवैधानिक अपेक्षाओं के अधीन रहते हुए, अपने क्षेत्र का त्याग भी कर सकता है। नए राज्यों को संघ की संसद साधारण विधान के द्वारा नए राज्यों को संघ में शामिल कर सकती है या उनकी स्थापना कर सकती है। नागरिकता संबंधी उपबंधो के अधीन, भारत के समस्त लोगों को एकल नागरिकता प्रदान की गई है। अमरीका की भांति संघ तथा राज्यों की दोहराी नागरिकता नही दी गई है।

इस प्रकार हमारे संविधान की Preamble के उपबंध पारंपरिक संघवाद, विभाजित संप्रभुता, राज्यों की स्वायत्तता आदि की सभी संकल्पनाओं का अंत कर देते है। इसके अलावा, संविधान निर्माताओं ने हमेशा के लिए यह स्पष्ट कर देने का प्रयास किया है कि हमारे देश की कार्यप्रणाली में संप्रभुता स्वयं लोगों में निहित है और यह कि संघ तथा राज्यों के सभी अंग तथा कर्मी अपनी शक्ति भारत के लोगों से ही प्राप्त करते है।

(ग) सार्वभौमः

सार्वभौम का तात्पर्य संपूर्ण और असीमित सत्ता से है जिसपर किसी बाहा या आंतरिक शक्ति का कोई दखल नहीं है; यह सार्वभौम सत्ता भारत की जनता में निहित है। राष्ट्रों के राष्ट्रमण्डल में भारत की सदस्यता संविधानेत्तर संविदात्मक व्यवस्थाओं पर आधारित है जो स्चेच्छा से ग्रहण की गयी है और उउसे स्वेच्छा से छोड़ा जा सकता है। अतः इससे भारत की सार्वभौमिकता पर को प्रभाव नहीं पड़ता । उभरते वैश्वीकरण ने अवश्यही सार्वभौमिकता की धारणा में अदलाव लाया है। तकनीकी रूप में अब कोई भी राष्ट्र, अपने को सार्वभौम होने का दावा नहीं कर सकता, क्योकि उन पर विश्व व्यापार संगठन और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का दबाव है।

(घ) धर्म निरपेक्षताः

पन्थनिरपेक्ष शब्द 1977 में समाजवादी शब्द के साथ Preamble में अन्तःस्थापित किया गया था। धर्म निपेक्षता का तात्पर्य है कि सभी धार्मिक सम्प्रदायों के धार्मिक फैसलों में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना और अभी धर्मो का समान आदर करना। राज्य द्वारा किसी को भी विशेष  सुविधा दे Preamble ना या किसी के भी साथ तरजीही सलूक बरतना वर्जित है। संविधान के द्वारा किसी मत या पन्थ को राज्य का पन्थ घोषित नहीं किया गया है। संविधान में सभी व्यक्तियों को समान व्यवहार की प्रत्याभूति दी गई है।

  • प्राचीन लैटिन शब्द सैक्युलारिस से सेक्युलर शब्द बना है, जिसका अन्य बातों के अलावा मतलब होता है, वह जो इस दुनिया का होता है, जो अनाध्यात्मक, लौकिक है और धर्म के विरूद्व है या धर्म से किसी प्रकार का इसका संबध नहीं है। धर्म निरपेक्षता का धर्म से संबध यही बताया गया है कि दोनों पारस्परिक रूप से अलग है और एक-दूसरे के खिलाफ नहीं है। पहली बार 1648 में धर्म निरपेक्षीकरण (सेक्युलराइजेशन) शब्द का व्यवहार यूरोप में 30 साल युद्व के समाप्त होन पर हुआ था, जबकि चर्च की संम्पत्ति को शासकों के पूर्णरूपेण नियंत्रण में हस्तांतरित कर दिया गया। बाद में , जब जार्ज जैकाब होलियोक ने 1851 में धर्म निरपेक्ष (सेक्युलराइजेशन) को विकास के सिद्धांत के रूप में लिया गया।
  • पंथनिरपेक्षता का जन्म राज्य द्वारा कुछ ऐसे सम्प्रदायों के विरूद्ध, जो राज्य को स्वीकार नहीं थे, अत्याचार और विनाश के कार्यो से हुआ। पंथनिरपेक्षता की संकल्पना का जन्म तब हुआ था जब फ्रांस में लम्बी अवधि तक रक्त पात हुआ और बड़ी संख्या में लोग मरे । इसका लक्ष्य था राज्य ओर चर्च (धार्मिक सत्ता) को अलग-अलग रखना। हिन्दुओं में धार्मिक सत्ता का कोई प्रतिष्ठान नहीं है अर्थात धार्मिक सत्ता किसी व्यक्ति, पद या संस्था में नहीं होती । अतएव राज्य पंथनिरपेक्ष होता है। इस्लाम में राज्य और धर्म संयुक्त हैं इसलिए एकाध अपवाद को छोड़ दे तो जहां मुसलमान बहुमत में हैं उन सभी राज्यों का इस्लाम राज्य घोषित किया गया है।
  • पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी मूल प्रवृति से ही धर्म निपेक्ष के लिए जाने जाते थे; उन्होंने धर्म निरपेक्षता को आधुनिकता से जोड़ा और जाति और धर्म पर आधारित भावनाओं को पिछडापन बताया और ’अतीत का समृति’ शेष कहा। पं0 नेहरू के अनुसार संकीर्ण धार्मिक गुटबंदी, बंधन या निष्ठा आबादी के बहुत से समूहों को अलग-थलग कर देते है और मुस्लिम राष्ट्रवाद, ईसाई-राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद का सृजन करते है न कि भारतीय राष्ट्रवाद का। विभिन्न सम्प्रदायों वाले इस देश में वास्तविक राष्ट्रीयता को लाने के लिए जरूरी है कि धर्म निपेक्षता को आधार बनाया जाय। एक बहु-राष्ट्रीय राज्य के उत्तर जीवन के लिए धर्म निरपेक्ष परमावश्यक है।
  • 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा धर्म निरपेक्षता को Preamble में प्रतिस्थापित किया गया था जो कि अभी भी पुणरूपेण परिभाषित नहीं किया गया है। संत जाबियर काॅलेज बनाम गुजरात राज्य के केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भले ही संविधान में धर्म निरपेक्ष राज्य जैसे शब्द स्पष्ट रूप में उल्लिखित नहीं है फिर भी यह स्पष्ट है कि संविधान निर्माता ऐसे राज्य की स्थापना के लिए इच्छुक थे और तदनुसार संविधान के अनुच्छेद 25 में 28 को संविधान में भी शामिल किया गया है। भारत में यह एक पुरानी कहावत है कि राज्य सभी धर्मो को सुरक्षा प्रदान करता है लेकिन किसी में हस्तक्षेप नहीं करता (वासुदेव बनाम वमनजी 1881)। यह बात सही है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता सभी धर्मो के प्रति सद्भाव का दृष्टिकोण रखती है यथा संर्वधर्म सद्भाव संकीर्ण स्वरूप में देखा जाए तो राज्यों के लिए धर्म निरपेक्षता की नीति नकारात्मक या रक्षात्मक रही है। धर्म निरपेक्षता में राज्य की सीमा के भीतर रहने वाले सभी लोगोें के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की भावना निहित है। केशवानंद भारती बनाम मिनेवा मिल्स केस में धर्म निरपेक्षता को संविधान का मूल तत्व माना गया है। संत जावियर बनाम गुजरात राज्य केश, 1974, में भारतीय संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र को स्पष्ट करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि राज्य के धर्म निरपेक्ष चरित्र में कोइ रहस्यवाद नहीं है। धर्म निरपेक्षता न तो ईश्वर विरूरूद्व है और न ईश्वर समर्थक। यह धर्मपरायण, प्रतिरोधी और नास्तिक सभी की समान दृष्टि से देखती है। यह राज्य के विषयों से ईश्वर को हटा देती है और यह सुनिश्चित करती है कि किसी के भी साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नही बरता जाएगा। राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा, यह सभी धर्मो के साथ समान व्यवहार करेगा।
  • बोम्मई बनाम भारतीय संघ, 1994 के केस में उच्चतम न्यायालय के फैसले से राज्य को न केवल अपने लिए किसी एक धर्म की स्थापना से राका गया, बल्कि उसे किसी धर्म के साथ अपना तरतम्य बैठाने या किसी धर्म विषेश का पक्ष लेने से भी रोका गया क्योकि राज्य को सभी धर्मो, धार्मिक सम्प्रदायों या वर्गो के साथ समान व्यवहार करना है। धर्म निपेक्षता, विवेकपूर्ण क्षमताओं पर आधारित विश्वास का प्रतिनिधित्व करती है और यह मानव के चहुमुखी विकास की सभी वांछित आवश्कताओं की परख में मदद् पहुचाती है। एक धर्म निरपेक्ष राज्य में विधिक अधिकार और लोक कर्तव्य किसी धर्म विशेष की सदस्यता या अनुसरण पर निर्भर नहीं करने के लिए प्रत्यनशील रहता है, भले ही वे किसी भी धार्मिक विश्वास या रिवाज से बंधे हों (जियाऊद्वीन बनाम बृज मोहन)।
  • के0एम0 पणिकर का तर्क है कि धर्म निरपेक्ष राज्य की तीन विशिष्टताएं है, जिनके होने का दावा भारत करता है प्रथम भारत का मानना है कि राजनैतिक संस्थाएं देश के संपूर्ण समुदाय के आर्थिक और सामाजिक हितों पर आधारित होनी चाहिए, जिसमें किसी के धर्म जाति या सम्प्रदाय को तरजीह देना वर्जित है;
  • द्वितीय भारत अपने राष्ट्र से व्यक्ति और व्यक्ति के बीच और समूह और समूह के बीच उसके पंथीय विश्वास या जातीय उत्पति के आधार पर बंटवारे की भावना को निकाल देता है;और तृतीय भारत मानता है कि एक मिश्रित धर्म निरपेक्ष देश को चाहिए कि वह वितरणशील न्याय को अपनी नितियों के आधार के रूप में अपनाएं यानी देश के नागरिक होने के नाते सभी सम्प्रदायों की शक्ति में भागीदारी होनी चाहिए और उन्हें कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों में समान रूप से भागीदारी निभानी चाहिए। स्वतंत्रता संग्राम से उत्पन्न धर्म निरपेक्षता को संविधान निर्मा के समय एक मूल्य के रूप में लिया गया।
  • फिर भी, भारत में 1980 और 90 के दशकों में धर्म निरपेक्षता पर प्रत्यक्ष तो नही पर, अप्रत्यक्ष रूप मे अल्पसंख्यावाद या छदम धर्म निपेक्षता का तात्पर्य उनमें है जो अपने को धर्म निरपेक्ष बताते तो है पर वास्तव में ऐसे है नहीं, वे या तो हिन्दू विरोधी है या मुस्लिम समर्थक है।
  • धर्म निरपेक्षता जैसे राजनीतिक रंग-चढे विषय पर कोई निर्णायात्मक भूमिका अदा करना अत्यंत ही दुरूह कार्य हो गया है। मानवतावाद वास्तव में धर्म निरपेक्षता का एक प्रमुख और बहुत बड़ा घटक है और किसी पर्सनल लाॅ में उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप मानवतावाद की अवधारणा पर आधारित होना चाहिए।
  • राजनीति का साम्प्रदायीकरण, जैसे देश के भिन्न-भिन्न भागों में एक सम्प्रदाय विशेष के प्रचारकों को मौत के घाट उतार देना, धर्म के नाम पर 1998 के बंबई साम्प्रदायिक दंगे, समाज के एक समूह विशेष धर्म समूह के विचारों की राजनैतिक अभिव्यक्ति है जो अंग्रेजों के ’बांटो और राज करो’ के सिद्वांत के अनुरूप है। यह सर्वथा अमानवीय कार्य है यानी धर्म निरपेक्षता विरोधी कार्य है। ऐसी स्थितियों में सरकार का हस्तक्षेप सर्वथा वांछनीय है। लेकिन देश में धर्म निरपेक्षेता की आवश्यकताओं और ऐसे उम्मीदवार या राजनीतिक दल, जो चुनाव जीतने के लिए धार्मिक संबंधन रखकर बस संबंधन का शोषण अपनी जीत के लिए करते है, के अधिकारों के बीच संतुलन कायम रखने में न्यायालय आज भी सक्षम नहीं है।
  • संविधान की Preamble में पंथनिरपेक्ष शब्द को स्थान देने से भ्रम उत्तपन हो गया है। इस अवसर का लाभ उठाकर राजनीतिक दलों ने पंथनिरपेक्षता की अपनी परिभाषाएं गढ़ ली है। कुछ राजनीतिक दलों का कहना है कि यदि कोई बात किसी समुदाय का प्रतिकर या अच्छी नहीं लगती है तो राज्य का चाहिए कि वह सत्य को छिपाए। कुछ अन्य दल अल्पसंख्यकों को बहुत से मामलों में वीटो का अधिकार देते हैं। जिस बात का अल्पसंख्यक अनुमोदन न करें वह पंथनिरपेक्ष नहीं है। कुछ दल ऐसा मानते हैं कि धर्म के प्रति शत्रुभाव रखना ही पंथनरिपेक्ष है। बाबरी मस्जिद जैसे राजनीतिक आवरण में लिपटे मामले से सम्बन्धित बहुत से मानहानि के बहुत से मामले आज भी उच्चतम न्यायालय में लम्बित है।
  • इसलिए यह स्पष्ट है कि धर्म निरपेक्षता तटस्थीकरण और हस्तक्षेप की तुलना में एक व्यापक संकल्पना है और उच्चतम न्यायालय पूर्णतः इस स्थिति में है कि वह समय-समय पर धर्म निरपेक्षता के फैलाव को परिभाषित कर सके, बशर्ते कि वह वास्तव में ऐसा करना चाहे और अपनी शक्तियों का सही अर्थ में प्रयोग करें।

(ड) समाजवादः

समाजवाद 42 वंे संशोधन द्वारा सन् 1977 में अतंस्थापित किया गया था। इससे पूर्व समाजवाद Preamble में नहीं था क्योकि संविधान देश को किसी विशिष्ट आर्थि क संरचरना साथ प्रतिबद्ध नहीं करता है। समाजवाद शब्द की परिभाषा संविधान द्वारा नहीं दी गयी है। ’समाजवाद’ शब्द को प्रजातांत्रिक और सम्वाद दोनों ही तरह के संविधान से अपनाया गया है। मोटे अर्थ में ’समाजवाद’ शब्द से ऐसी सरकार का अर्थ निकालता है, जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य द्वारा अशतः या पूर्णतः नियंत्रण होता है। भारत का समाजवाद एक प्रजातांत्रिक समाजवाद है। एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते इसमें राष्टीयकरण और निजीकरण दोनों ही विद्यमान है।

  • समाजवाद का आशय ही यह है कि आय तथा प्रतिष्ठा और जीवनयापन के स्तर में विषमता का अंत हो जाए तथा जीवन में समानता आ जाए। संविधान की Preamble में ’समाजवाद’ शब्द जोड़ दिए जाने के बाद, संविधान का निर्वचन करते समय न्यायालयों से आशा की जा सकती थी कि उनका झुकाव निजी संपत्ति, उद्योग आदि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर राज्य के स्वामित्व के तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार के पक्ष में होता। किंतु, आर्थिक उदारीकरण विदेशी पूंजी निवेशन, विदेशी कंपनियों के खुले प्रवेश, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण और खुले बाजार की प्रतिस्पद्र्वा की नीतियों के चलते हम संभवतया किसी प्रकार भी समाजवादी मूल्यों के पालन का दावा नहीं कर सकते।
  • उच्चतम न्यायालय ने डी.एस. नकारा बनाम भारतीय संघ के केस में निर्णय दिया था कि एक समाजवादी संरचना का आधारभूत कार्य श्रमिकों को एक सम्मानजनक पूर्ण जीवन स्तर मुहैया कराना है।
  • समााजवाद अत्याधिक शोषण पर रोक लगाता है लेकिन मुक्त प्रतिस्पर्धा पर रोक नहीं लगाता। वास्तव में इसका झुकाव गांधीवाद समाजवाद की ओर है जिसमें पूंजीवाद के लिए भी अच्छी मात्रा में स्थान है।
  • लोकतन्त्र और समाजवाद दो सुभिन्न संकल्पनाएं हैं जो एक दूसरे के विपरीत हैं। समाजवाद की धारणा में एक विशेष प्रकार की सरकार है जिसमें व्यक्ति स्वातन्त्रता का महत्व नगण्य है पूर्व में जो रूस का समाजवादी गणराज्य था जिसमें कोई स्वतन्त्रता नहीं थी। प्राण की स्वानन्त्रता भी नहीं। लोकतन्त्र में व्यक्ति की गरिमा का स्थान ऊंचा है। रूस में और अनेकों समाजवादी देशों में समाजवाद से मुह मोड़ लिया गया और अब समाजवाद पाठ्य-पुस्तकों का विषय रह गया है। सिद्धान्त के रूप में समाजवाद खोखला हो गया है।

(च) प्रजातांत्रिक:

सरकार चलाने की सारी शक्तियां, वह केन्द्रीय सरकार हो, राज्यों की सरकारें हो, या सबसे नीचले स्तर की राजनैतिक संस्थाएं हो, प्रजांतत्रिक तरीके से निर्वाचन जन-प्रतिनिधियों के हाथों से सौपी गई। है। प्रजातांत्रिक’ शब्द इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि संविधान ने एक ऐसी प्रणाली की सरकार की स्थापना की है जो जनता की इच्छा से अपनी शक्ति ग्रहण करती है। हमने, प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की पद्वति को अपनाया है। जिसे संसदीय प्रजातंत्र’ कहा जा सकता है।

  • प्रजातंत्र का बुनियादी लक्षण है कि प्रभुसत्ता लोगो में निहित होः धर्म, जाति, संप्रदाय, रंग या स्त्री-पुरूष के भेदभाव के बिना तथा आर्थिक, शैक्षिक या व्यावसायिक पृष्ठ भूमि के स्तर के भेदभाव के बिना, कानून की नजरों में सभी बराबर हो और प्रत्येक व्यक्ति को बराबर सक्षम समझा जाए। वह उस तरीकेे से, जिसे वह उचित समझे, स्वयं पर शासन कर सके तथा अपने निजी कार्य-व्यापार कार्यों का प्रबंध कर सके। लोकतंत्र में लोग स्वयं अपने स्वामी माने जाते है। उन्हेें इस बात का हस्तान्तरणीय अधिकार होता है कि स्वयं पर शासन करें या अपने मनचाहें तरीके से तथा उन लोगों द्वारा शासित हो जिन्हें वे चुनें। ऐसे समाज की कल्पना है जिसमें विचारों का मुक्त आदान-प्रदान हो और प्रत्येक व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा हो।
  • संविधान निर्माताओं ने भारी संख्या वाले देश के समस्त वयस्क लोगों को साक्षरता, संपति, आयकर या स्त्री-पुरूष के किसी मानदंड के बिना मतदान का अधिकार देकर पूर्ण प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रदान किया। इस तथ्य की पुष्टि सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के प्रावधानों से हो जाती है। भारत में राजनीतिक और सामाजिक दोनों प्रकार का लोकतन्त्र है। 18 वर्ष तथा उससे ऊपर के सभी वयस्कों-पुरूषों तथा स्त्रियों को मतदान का अधिकार प्राप्त है और एक ही निर्वाचक नामावली है तथा कार्यपालिका विधायीमंडल के लोक-सदन के प्रति उत्तरदायी है।

(छ) गणतंत्रः

’गणतंत्र’ की संकल्पना उस राज्य की प्रतीक है जिसमें जनता सर्वोच्च होती है, जिसमें कोई विशेषाधिकार प्र्राप्त वर्ग नहीं होता और किसी भी नागरिक के किसी भी लोकपद पर निर्वाचित होने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसमें वंशानुगत शासक नहीं होताा तथा शिखरस्थ पद अर्थात राष्ट्राध्यक्ष लोगो द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है, जिसे सामान्यतया गणराज्य का राष्ट्रपति कहा जाता है। कूले के अनुसार, गणराज्यीय शासन प्रणाली जन-निर्वाचित प्रतिनिधियों की शासन प्रणाली होती हैं। न्यायमूर्ति हियतुल्लाह के शब्दों में ’गणराज्य एक ऐसा राज्य होता है जिसमें अंतिम विश्लेषण की सर्वोच्च शक्ति जनता में होती है, न कि राजा जैसे किसी एक व्यक्ति में निहित होती है। इसलिए लोकतंत्रात्मक गणराज्य से अभिप्राय मोटे तौर पर उस गणराज्य या राज्य से होता है जिसमें एक निर्वाचित अध्यक्ष तथा जन-प्रतिनिधियों की सरकार होती है।

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