chitralekha

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Chitralekha

कुछ ऐसी रचनांए और कृति होती है जो समय-काल की सीमा को लांघकर हर समय नई और वैचारिक बनी रहती हैं। हिन्दुस्तान में हिन्दी साहित्य की दुनिया में भी कुछ ऐसे उपन्यास लिखे गए, जिन्होंने अपने आप को समय निरपेक्ष बनाते हुए सदैव वर्तमान का अतिक्रमण किया है । भारतीय परम्परा और चिंतन की विराट संकल्पना में ऐसे ढेरों उपन्यासों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मानक के तौर पर हम Godan (Premchand), Banbhatt Ki Aatmkatha (Hazari Prasad Dwivedi), Maila Aanchal (Phanishwar Nath Renu), Tamas (Bhisham Sahni), Kaala Jal (Shani), Bahti Ganga (Shiv Prasad Mishra ‘Rudra Kashikey’), Jhoota Sach (Yashpal) के साथ Bhagwati Charan Verma का Chitralekha का स्मरण कर सकते हैं यह वर्ष जब स्वतन्त्रता प्राप्ति के 75वें वर्ष की उपलब्धियों का ब्यौरा समेटने में संलग्न है, तब ऐसे में इन चुनिन्दा औपन्यासिक कृतियों की पड़ताल भी सामयिक बन जाती है।

आज का स्तम्भ Chitralekha पर एकाग्रकित है, जो Bhagwati Charan Verma की रचनाओं में मील का स्तम्भ माना जाता है। पाप और पुण्य की समस्या को केन्द्र में रखकर इन शाश्वत प्रश्नों का सामाजिक और व्यावहारिक समाधान खोजने में उपन्यास Chitralekha विन्यस्त है। बेहद लोकप्रिय और भारतीय हिन्दी सिनेमा की दुनिया में दो बार फिल्मायी जा चुकी इसकी कथा भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ एक सुन्दर कथानक का इंद्रजाल बुनती है, जिसमें महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य-श्वेतांक और विशालदेव क्रमशः शासक बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि कीे शरण में जाते हैं। इनके साथ रहते हुए श्वेतांक और विशालदेव नितांत भिन्न जीवनानुभवों से गुजरते हैं, जिनके माध्यम से पाप और पुण्य की व्याख्या सम्भव होती है। एकबार तो देखने पर यह लगता है कि यह उपन्यास Chitralekha सामयिक प्रश्नों से अलग, एक दूसरी दुनिया के कौतूहल को सुलझाने वाला पाठ लगता है, जिसमें कथा विन्यास, भाषा-कौशल तथा जीवन मूल्यों के लिए कुछ आध्यात्मिक ढंग का रहस्य बुना गया है। मगर पूरे उपन्यास Chitralekha से गुजरते हुए जब इसके दार्शनिक भावों से बार-बार टकराते हैं, तो समानान्तर स्तर पर यह बात मुखरित होती है कि जीवन का समाहार केवल रोजनामचे में दर्ज होने वाली समस्याएं ही नहीं हैं, बल्कि मनुष्य बने रहने के भाव को समेटने वाले ढेरों शाश्वत प्रश्न भी कई दफा मन का कोना संशय से भरते हैं।
मनोवैज्ञानिक ढंग से यदि हम Chitralekha की कथा का सार-संक्षेपण करें, तो यह बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य मूल्यों को लेकर अपने जीवन भर संर्घषरत रहता है, इस उधेड़बुन में अपने लिए मानक और वैचारिकी तय करता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित ? क्या श्रेष्ठ है और क्या त्याज्य ? क्या सार्थक है और क्या निरर्थक ? सभी के समाधान का रास्ता खोजने हुए हमें एक प्रकाश किरण आपके हाथ लगती है, जिससे आप अपने ढेरों संशयों का हल करने की युक्ति पाते हैं। यह अलग बात है कि इस कृति की कहानी आपको वहां तक पहुचने का सुगम रास्ता/मार्ग पाप और पुण्य के प्रश्नों के सहारे हमें समझाती है।

आत्मसंशय से गुुजरते हुए आत्मरति तक पहुंचना और फिर आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ना शायद एक बेहतर साहित्यिक कृति का उद्देश्य होती है। यह अकारण नहीं है कि Chitralekha को पढ़ते हुए कई बार दार्शनिक ढंग से सामन्ती बीजगुप्त का जीवन कहीं अधिकक उद्देश्यपूर्ण नजर आता है, जो भोग-विलास में डूबा है, जबकि साधना पथ पर चलने वाले योगी कुमारगिरि का हश्र निरूद्देश्य भटकते हुए उस प्राणी में तिरोहित हो जाता है, जो संसार से कटा हुआ है और समष्टि के प्रश्नों को भी हल कने में कहीं चूक गया है। यहीं पर नायिका Chitralekha की सर्जना तर्कपूर्ण ढंग से विकसित होती है, जो इन दो विपरीत ध्रुवों पर मौजूद मानसिकता वाले किरदारों के बीच पुल का काम करती है। उसका चरित्र असाधारण गुणों से भरपूर है, जिसकी व्यंजना ही इस आशय के तहत की गई है कि समाज में नीची निगाह से देखी जाने वाली एक नर्तकी या वेश्या का चरित्र भी औदात्य और सम्भावना से परिपूर्ण हो सकता है। वह भी किसी भटके हुए को राह दिखा सकती है और समाज में नीची पायदान पर पाए जाने वाले तिरस्कृत समुदाय के लिए आदर्श बन सकती है।
Chitralekha की योजना संश्लिष्ट है, उसका विचार शास्त्रीय ढंग से कलात्मक अभिव्यक्ति के बहाने मनुष्यता के प्रश्नों को रेखांकित करने में असरदार ढंग से काम करता है। परम्परा में जिस काम और अध्यात्म की युक्ति से एक सृष्टि कामाध्यात्म या श्रृंगार भक्ति की देखी जाती है, उसमें Chitralekha की रचना पूरी तरह चरितार्थ होती है।

इस उपन्यास Chitralekha को पढ़ते हुए यही दोनांे युक्तियां जयशंकर प्रसाद की कामायनी और दिनकर की उर्वशी से भी परिलक्षित होती हैं। यह अलग बात है कि यहां पूरा कथा विस्तार काल्पनिक है, जिसे यर्थाथ की परिधि में मनौवैज्ञानिक ढंग से हल करने की कोशिश की गई है। उपन्यास Chitralekha का अन्त, भारतीय नाट्यशास्त्र की फलश्रुति सरीखा है, जब महाप्रभु रत्नांबर टिप्पणी करते हैं- ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।’’ अन्त तक आते हुए मनुष्य की मनःप्रवृत्ति, दृष्टिकोण, विवशता और इच्छा का विन्यास वृहत्तर अर्थ में खुलता है। हम एक बड़ी कृति से जितनी अपेक्षा करते हैं, Chitralekha वह सब सुलभ कराती है।
स्त्रोत-
चित्रलेखा-भगवती चरण वर्मा
दैनिक जागरण

The Illustrated Ramayana

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