Aushwitz

Aushwitz : Ek Prem Katha

युद्ध और संघर्ष जीवन, आजीविका, अर्थव्यवस्था, परिवार एवं समस्त अधिकारों के समूल नाश की वजह का कारण बनते हैं। महिलाएं इनसे असंगत रूप से प्रभावित होती हैं। युद्ध और उससे उत्पन्न स्त्री उत्पीड़न एक ही सिक्के के दो क्रूर पहलू हैं।

 Aushwitz And Garima Srivastava

गरिमा श्रीवास्तव की ‘Aushwitz : Ek Prem Katha’ दो अलग-अलग स्थानों पोलैण्ड के आउशवित्ज और बांग्लादेश (हसनपुर) एवं कालों द्वितीय विश्वयुद्ध (वर्ष 1939 से 1945) और बांग्लोदश के मुक्ति संग्राम वर्ष 1971 में हुए युद्ध से उत्पन्न नृशंस नरसंहारों और दुर्दांत घटनाओं विशेष तौर पर स्त्रियों की भीषण त्रासदी पर केन्द्रित बेहद संवेदनशील औपन्यासिक कृति है। इन दोनों युद्धो की स्मृतियों के मध्य आकार लेता यह बहुस्तरीय उपन्यास इतिहास और वर्तमान के बीच गोता लगाता है। आउशवित्ज स्त्री के प्रेम और स्वाभिमान के तन्तुओं से बुने इस उपन्यास के पात्र और घटनाएं सच्ची हैं, इतिहास इन घटनाओं को मूक गवाह तो रह चुका है।

पुस्तक ‘Aushwitz : Ek Prem Katha’ में प्रतीति सेन जादवपुर युनिवर्सिटी की तरफ से एक सेमिनार में शिरकत करने पोलैण्ड जाती है। वहां हिन्दुस्तान में बनी पोलिश महिला सहेली सबीना से उसकी मुलाकात होती है।

Aushwitz And Holocast

हिटलर की नात्सी सेना द्वारा यहूदियों के समूल खात्में के लिए पोलैण्ड में बनाए गए Aushwitz Camp में प्रतीति सेन जाती है, जो अब संग्रहालय में तब्दील है। यहां 10 लाख लोगों को गैस चैम्बर या अन्य तरीकों से मौत के हवाले कर दिया गया था, जिसमें यहूदी, पोलिश, जिप्सी शामिल थे। औरतों पर इस होलाकास्ट की दोहरी मार पड़ी थी, उनके साथ भयानक यौन हिंसा हुई, जिसे सुनने से सिहरन पैदा होने लगती है। प्रतीति सेन युद्ध के निसान ढूँढने पहुँची, अपने जीवन को फिर से देखने की दृष्टि Aushwitz में ही पाती है। सबीना के पति के पिता को इसी कैम्प में 10 साल की उम्र में अंधा बना दिया गया था। सबीना, प्रतीति को अपने दादा की डायरी पढ़ने को देती है, जिसमें वर्णित होलोकास्ट की घटनाओं को पढ़कर वह कांप जाती है। ‘लगता है मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हो गए हैं-एक वह जो मार खाता है, गालियां सुनता है, धारीदार मोटे कपड़े की कैदी पोशाक पहने लाशों को खींच-खींचकर दफन करता है, खून से सने फर्श पर पोंछा लगाता है और दूसरा यहां से मुक्ति के सपने देखता है।’

Aushwitz And Human

क्या एक इंसान सिर्फ नस्तीय घृणा के चलते अपने जैस दूसरे इंसानों पर अत्याचार की सारी हदें पार कर सकता है? यहां दर्ज Aushwitz की यातनाओं को पढ़कर अन्तर्मन विचलित हो जाता है। वास्तव में शायद उस समय मनुष्य से मनुष्यता का अन्त हो गया था। ‘वर्क इज लिबर्टी’ नामक एक अध्याय में 19 नवम्बर, 1945 से युद्ध अपराधियों पर मुकदमों की शुरूआत होने के अंश शामिल हैं। जहां कैम्पों में बन्दी बने लोगों के बयान हैरान और परेशान करने वाले हैं। गरिमा, प्रतीति सेन के माध्यम से कहती है कि-‘‘होलोकास्ट देखा नहीं मैंने, अनुभव भी नहीं किया, लेकिन इतिहास के सीने पर होलोकास्ट की घटनाओं के गहरे घाव हैं, ऐसे खुरंड जिनकी ऊपरी परत छीलते ही भीतर का घाव अपने नएपन और दर्द के साथ बार-बार उभर आता है।’

Aushwitz And Rahmana Khatun

ल्ेखिका होलोकास्ट के जुड़े शोध, कैम्पों में कैदी रहे लोगों की स्मृतियां, पत्र, डायरी, संस्मरण सभी का सहारा लेकर उस परिदृश्य को महसूस करने का प्रयास करती हैं। उपन्यास Aushwitz में प्रतीति सेन की नानी द्रौपदी देवी क कथा है। 30 साल की शादीशुदा तीन बच्चों की मां बलात्कार होने पर प्रतीति के नाना बिराजित सेन द्वारा त्याग दी जाती हैं। जीवन काटने के लिए मौलवी की आठवीं बीबी बनना स्वीकार करती हैं और रहमाना खातून बनने को मजबूर हो जाती हैं। भयंकर परिस्थितियों से लड़ते हुए रहमाना खातून का व्यक्तित्व स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान का सशक्त उदाहरण है। पूर उपन्यास में प्रतीति कब रहमाना खातून हो उठती है और कब रहमाना खातून, प्रतीति पहचानना मुश्किल है। दोनों के मध्य संवादों की डोर बंधी रहती है।

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रहमाना खातून द्वारा अपनी बेटी टिया को पाकिस्तानी कैम्पों में खोजने का संघर्ष हदयविदारक है। उपन्यास Aushwitz के अन्त में प्रतीति सेन की मां टिया की कथा पढ़ी गई है। टिया बताती है किस प्रकार -कैम्प में फल मिठाई का लालच देकर लोग अपने पास बुलाते थे, एक मुट्ठी मूढ़ी, बिस्कुट के एक टुकड़े के लिए उनके पास जाकर खड़ी रहती, वे उसकी नन्हीं अविकसित छातियों को लकड़ी से कोंचते, पेन से उस पर स्केच बनाते। ’बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी कैम्प में टिया और उसके जैसी भूखी बिलबिलाती सैकड़ों लड़कियां जूठे भात के एक कौर के लिए, बिस्कुट और लेमनचूस के छोटे टुकड़ों के बदले यूं ही अपना शरीर पाकिस्तानी फौजियों को सौंप देती थी।

उपन्यास में प्रेम की अनुभूतियों चारों ओर बिखरी हैं। रहमाना खातून, प्रतीति या फिर सबीना सभी ने अथाह प्रेम किया, अपने प्रेम की कभी बिसराया नहीं, लेकिन अपने आत्म सम्मान और स्वाभिमान से कभी समझौता भी नहीं किया। भाषा की दृष्टि से एक बेहद उपन्यास Aushwitz, जिसमें काव्यात्मकता की झलक भी मिलती है। द्वितीय विश्वयुद्ध और बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम युद्ध की स्मृतियों के तनाब के बीच यह बहुस्तीय उपन्यास Aushwitz लिखा गया है जो कभी-कभी आत्मकथा का भ्रम देने लगता है। यह स्मृतियों के आर्केटाइप जैसा कुछ है जो अपने संरचनात्मक रूप में बहुस्तीय है। उपन्यासकार इतिहास और वर्तमान के बीच आवाजाही करता है। उपन्यास Aushwitz के भाषिक प्रयोग और भाषा की काव्यात्मकता बहुत ही सृर्जनात्मक है। ‘Aushwitz : Ek Prem Katha’ युद्ध की भयावहता से मानवजाति को सजग और सचेत करती हुई लम्बे समय तक विश्व साहित्य में युद्धविरोधी लेखन और भावनात्मक प्रेमकथा की मिसाल के तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहेगी।

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