Decision making

निर्णय लेने की क्षमता  (Decision making)

निर्णय लेने की क्षमता (Decision making) क्या है ?  सवाल उठे मन में कई। कहानी का एक पात्र जो जीवन के विविध परिवर्तनों से गुजरते हुये और विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुये एक सफल व्यक्ति बन जाता है। जीवन वस्तुतः उन चुनावों पर निर्भर करता है जो हम उपलब्ध विकल्पों में से करते हैं।

जीवन निर्णयों से चलता है औरनिर्णय लेने की क्षमता क्या है । उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चयन ही तो होता है। व्यक्ति द्वारा किये गये उस चयन अथवा लिये गये उस निर्णय से ही उसका जीवन या उसके जीवन का कोई एक पक्ष प्रवाभित होता है। निर्णय लेने की क्षमता  (Decision making) एक कला है जिसमें कुछ लोग सफल होते है और कुछ नहीं। लेकिन कोई निर्णय सही है अथवा गलत, उचित है या अनुचित, इसकी कसौटी क्या है

कसौटी ही वह परिणाम है। परिणाम हीवह कसौटी है जिस पर किसी भी निर्णय का औचित्य परखा जाता है। परिणाम सकारात्मक, आशानुकूल, वांछित प्रदान करने वाला हो तो जो निर्णय लिया गया था, वह उचित समझा जाता है। परिणाम अच्छा मिला तो निर्णय सही होता है। परिणाम अनुकूल न मिले तो निर्णय गलत साबित होता है लेकिन निर्णय तो पहले लेना पड़ता है।

परिणाम चाहे निर्णय पर आधारित ही हो, पता तो बाद में ही चलता है । अपवादों को छोड़कर कोई भी निर्णय लेते समय अर्थात उपलब्ध विकल्पों में से अपने विवेक के अनुरूप् चयन करते समय तो परिणाम की बाबत अनुमान ही लगाया जा सकता है, अपेक्षा ही की जा सकती है कि परिणाम मनोनुकूल होगा। वस्तुतः ऐसा होगा या नहीं, यह कोई ज्योतिषी जान सकता है, सामान्य व्यक्ति की बस की बात नहीं है तो फिर सही निर्णय कैसे लिया जाये।

जिन्दगी को बहुत बार एक जुआ कहा जाता है। उसे जुआ इसलिए कहा जाता है क्योकिं जैसे जुए में दाव लगाने वाला खिलाड़ी जीत भी सकता है और हार भी सकता है, वैसे ही जीवन में लिया गया कोई भी निर्णय अभीष्ट दिला भी सकता है और कभी-कभी जो है, उसे गवा देने की स्थिति में भी पहुचा सकता है। और मनुष्य का सक्रिय जीवन उसके द्वारा लिये गये विभिन्न निर्णयों का योग ही तो होता है। अगर अब यह जुआ भी है तो सांसारिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को यह जुआ दिन-प्रतिदिन खेलना ही पड़ता है, इससे भागा नहीं जा सकता। फिर तो जुए में पराजय से कैसे बचा जाए ।

गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” अर्थात अधिकार कर्म में ही हो, उसके फल में नहीं। कर्म करते समय उसके फल या परिणाम की एक परिकल्पना अवश्य करें किन्तु उसके मिलने या न मिलने सम्बन्धी विचार को त्याग देना चाहिए औ केवल यह देखना चाहिए  कि वह कर्म अपने आप में शुभ और सकारात्मक है या नहीं। फल कई कारकों पर निर्भर करता है जो कर्ता के नियन्त्रण में नहीं होता है।

फल या परिणाम यदि मन के अनुकूल न हो तो समझा जाता है कि निर्णय गलत था लेकिन यह तो भौतिक सफलता को ही सब कुछ मानने वाले संसार की विचार धारा है। कर्ता की सोच तो उसके संस्कारों से चलती है। उदात्त संस्कारों से युक्त अनुचित निर्णय कैसे ले सकता है, ऐसा व्यक्ति यदि अपने मन में पवित्र भावना रखते हुये किसी उत्तम उद्देश्य के निमित्त कोई निर्णय लेता है तो कालान्तर में आने वाला अनपेक्षित विपरीत परिणाम उसके औचित्य पर उंगली कैसे उठा सकता है ?फल सम्बन्धी सोच विचार मस्तिष्क करता है जबकि कर्म सम्बन्धी निर्णय का बीजारोपण हदय में होता है।

जब हदय पर विश्वास करके कुछ किया जाये तो फल की प्राप्ति चिन्ता का बिषय नहीं बनता है। आपका यदि संस्कार उत्तम है, जीवन के उच्च मूल्यों में आपका विश्वास है, आप अपना और साथ ही दूसरों का भी हित ही चाहते है तो अपने हदय की पुकार सुननी चाहिए और तद्नुरूप् निर्णय लेकर आगे बढते जाइए। आप कभी भी धोखा नहीं खा सकते है।

सरांश यही कि निर्णय के औचित्य की कसौटी उसके परिणाम को नहीं वरन अपने विवेक को बनाइए जिसके अनुरूप आप निर्णय ले रहे हैं। परिणाम आपके वश में नहीं है लेकिन निर्णय लेते समय आपका विवेक तो आपके वश में होता है। सदाविवेक से निर्णय लीजिये और उसके सही होने के विश्वास की ज्योति अपने मन में जलाकर रखिए, परिणाम की कसौटी चाहें जो भी हो।

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