Vanya

‘Vanya:-आदिवासी स्त्री-संघर्श की कहानियां’

समकालीन हिन्दी परिदृश्य की समर्थ रचनाकार मनीशा कुलश्रेष्ठ का नया कहानी संग्रह ‘Vanya:-आदिवासी स्त्री-संघर्श की कहानियां’ उस कंकरीले रास्ते पर जाता है, जहां आदिवासी अस्मिताओं की कथाएं, अपनी पुकार पूर्वज में परम्पराओं, कुरीतियों और संघर्श-भरे जीवन को दृश्टा भाव से देखने को मिलता है।

ऐसे परिवेश की कहानियों को चुनकर विचार-विमर्श बनाना, जहां उनके अपने सीधे सरल जीवन के आदिम समाज के मुहावरे आज भी सभ्य समाज में कौतुक से देखे जाते हैं, लेखिक द्वारा अपनी पुस्तक में जटिल और गम्भीर प्रयास किये गये हैं।

लेखिका के पास भाषा और सम्वादों का अनूठा खजाना है, जिससे आज लिखी जा रही कहानियों में वह सर्वथा भिन्न, मौलिक और अनूठे ढंग से हस्तक्षेप करती हैं। ये कहानियां इस मायने में और भी चौंकाती हैं कि इनमें आज के युग का वह कोलाहल नहीं बसा है और न ही आज के नगरीय जीवन की आपाधापी और न ही इंटरनेट मीडिया से उपजी अवसाद रूटीन टाइप की कहानिया है।

यहां एक खिड़की खुलती है, जो दूर वन प्रांतर तक जाती हुई किसी पहाड़ी नदी या बूढे गदराए वृक्ष के समक्ष अपने होने को बार-बार प्रमाणित करती है। इन कहानियों का आहावन वनस्पतियों, प्राकृतिक सम्पदा और पशु पक्षियों से समभाव सम्वाद पर एकाग्र है।

शायद इसलिए Vanya की हर कहानी पर ठहरकर बहुतेरी ऐसी पगडंडियां खुलती हैं, जिनमें कथातत्व से अलग एक बारीक कोमलता और मर्मस्पर्शिता गलबहियां हैं।

यहां जंगल है और दूर-दूर तक छिटकी हुई आबादियों में, स्त्रियों की त्रासद करूणा कहीं भीतर नीम रोशनी में सिसकती है, वहीं दूसरी ओर अंतः सलिल भाव से नदियों का कलकल बहता हुआ जल किसी दारूण रूपक की तरह Vanya की कहानियों हर जगह मौजूद रहता है। इसी अर्थ में ‘Vanya’ का अभिप्राय, हमारे शहरी कमरों में अपनी पीड़ा को साक्षा करने चला आता है।

Vanya के भूगोल में आठ कथाओं का एक ऐसा संसार बसता है, जिसके मुख्य द्वार में प्रवेश करने के बाद आप अपने समय से कटकर किसी ऐसी वादी में चले जाते हैं, जहां बस्ती को कोलाहल, पक्षियों का कलरव, हवा की मर्मर ध्वनि और पहाड़ी नदियों की अठखेलियां सुकून भरी हरियाली का सुख-चैन बांटने लगते हैं।

Vanya की पहली कहानी ‘नर्सरी’ का कथ्य अनूठा है, जिसमें एक पुरानी पड़ चुकी गेंद, एक अभिजात्य परिवार से निकलकर गरीब आदिवासी की बेटी तक पहुंचती है। इस यात्रा में गेद जिस तरह अपनी आपबीती सुनाती है, उसके बहाने आदिवासी समाज के बारे में बहुत सारी दृश्यात्मकता परत-दर-परत खुलकर उनके भोले-भाले जीवन की त्रासद सच्चाई हमारे सामने बयां करती है।

यहां भाषा और शब्द कौतुक से सुन्दर व सघन बिम्ब बुने गए हैं, जिनकी रहवारी में जीने का मन करने लगता है। इन कहांनियों में देशज उष्मा, माटी महक और लोक जीवन की खांटी बुनावट उसी तरह रची-बसी है, जिस तरह वियदान देथा, उषाकिरण खान और चरण सिंह पथिक की कहानियों में मौजूद मिलती है।

Vanya and Nila Ghar

Vanya  की कहानी ‘नीला घर’ की दुनिया में याबोम और तोसिरो जैसे नायको की एक ही स्त्री, मिति के प्रति त्रिकोणात्मक रिश्ते की संश्लिश्ट आवाजाही किस्सागोई का शिखर रचती है।

मानवीय दुर्बलताएं, एक ही स्त्री को अपने ढंग से पाने की चाहत और सामाजिक विषमता के खेल में आने वाला सीढ़ीदार खेत, झरने, शराब, बसन्त की प्रतीक्षा, तीज-त्योहार, मेले और संतरे का मौसम सब कुछ करीने से आता है, जैसे हम किसी आदिवासी, संथाली, भील या अन्य जनजाति के अन्तर्मन की व्यथा पढ़ रहे हों।

Vanya and Kuranja

इस उपन्यास  Vanya की ‘कुरजां’ कहानी अलग ही मुकाम पर खड़ी है, जहां घुमन्तु कबीलों के जीवन से निकलकर एक स्त्री के डाकण (डायन) करार दिए जाने की कहानी त्रासदी मन को बोझिलता से भरती है।

मास्टर साहब और उसके बेटे का आत्मीय सम्बन्ध और कुरजां को लेकर हमारे समाज की भिन्न-भिन्न मनः स्थितियों हमें उन विचित्र रूढ़ियों की तरफ सोचने और विचार करने पर विवश करती हैं, जो अभी भी मानव की इक्कीसवी सदी की सभ्यता पर अभिषाप की तरह कुण्डली मारकर बैठी हैं।

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इस उपन्यास  Vanya की लगभग सारी कहानियां अपने कलेवर और शिल्प में कुछ न कुछ संदेष छुपाएं हुए हैं, जिनमेंु ‘एक थी लीलण’, ‘आर्किड’, ‘जमीन’, या रक्स की घाटी और शब-ए-फितना को बार पढ़ा जा सकता है।

आर्किड कहानी का यह अंश बहुत कुछ कहता है-मगर जो हमारा था, वह तो न छिनता …..ये जंगल-पहाड़, हमारी खेतियां, पशु…। और हमारी औरते। हमारे शहर, गांव, कस्बे सेना के ट्रकों, बन्दूकों और सिपाहियों से भर जाएं और हम उनके साये में कंपकंपाते जीते रहें…..राजस्थानी के शब्द कमेड़ी (फाख्ता), रोजीड़ा (नीलगाय) पगरखी (जूतियां) और गुआड़ (घर)…असर डालते हैं। ‘सर्पिणी की मंथर गति…. ‘भूरी छाती वाला तीतर’, ‘झिलमिलाती तोरसा की धारा’, ‘इलायची की सुगन्ध में भेड़ के दूध की गन्ध’, ‘पूगल की पद्यण जैसा सुनहरा रूप’, ‘नीम की डाल पर नुचे पंख वाला काणां कौआ’ जैसे अनगिनत वाक्य विन्यास, पदबन्ध उस चित्रात्मकता और आदिवासियों के जीवन का कंठहर बनते हैं, जिन्हें पढ़ना एक बेहतरीन अनुभव से गुजरना है।

Vanya किताब की कहानियों के पात्र भले ही सुदूर जंगलों और पहाड़ों पर बसते है, मगर उनकी स्पर्धा, ईर्श्या, भलमनसाहत, पीड़ा, ंअपनत्व और प्रेम के मामले बिल्कुल आधुनिक और नए हैं, जैसे हम षहरी जीवन के कैनवास को बदलकर दूसरे समाज की कहानी पढ़ रहे हों।

स्त्रोतः-
1. वन्या पुस्तक के पन्नों से
2. दैनिक जागरण
3. इन्टरनेट

By admin

One thought on “Vanya”
  1. आदिवासी समाज का आईना लेखिका द्वारा बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

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