भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 124ए में राजद्रोह

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। यदि कोई व्यक्ति भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करे या पैदा करने का प्रयास करें अथवा असन्तोष उत्पन्न करें या करने का प्रयत्न करें तो वह भारतीय दण्ड संहित की धारा 124ए के अनुसार राजद्रोह का आरोपी होगा।

  • राजद्रोह एक गैर जमानती अपराध है तथा इसके लिए 3 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा तथा जुर्माने या दोनों का प्रावधान है।

ब्रिटिश कालीन भारत में कानून आयोग की सिफारिश पर आइपीसी, 1860 में अस्तित्व में आया और इसे भारतीय दण्ड संहिता के रूप में 1862 में लागू किया। इसका प्रारूप लार्ड मैकाले ने तैयार किया था। 1891 के बांगोवासी केस, 1908 मे बाल गंगाधर तिलक के केस और 1922 में महात्मा गांधी के केस में ब्रिटिश अदालतों ने तर्क दिया कि जरूरी नहीं कि हिंसा भड़कनी चाहिए। अगर किसी किसी के बयान से सरकार के खिलाफ असन्तोष भड़कता है तो उसे राजद्रोह कानून के तहत गिरफ्तार किया जा सकता है। जस्टिस आर्थर स्ट्रीची ने बाल गंगा तिलक केस में कहा कि असन्तोष भड़काने की कोशिश करना भी राजद्रोह है।

धारा 124ए के समर्थन में तर्क

आईपीसी की धारा 124ए राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से सुरक्षा प्रदान करता है।

  • कानून द्वारा स्थापित सरकार की निरन्तरता व अस्थिरता राज्य के विकास के लिए एक अनिवार्य शर्त है।
  • यदि अदालत की अवमानना के लिए दण्डात्मक कार्यवाही का प्रावधान है, तो सरकार की अवमानना के लिए दण्ड आखिर क्यों नहीं होना चाहिए।

धारा 124ए के खिलाफ तर्क

धारा 124ए ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है एवं लोकतन्त्र में अनुपूरक है। साथ ही यह संविधान द्वारा प्रत्याभूत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मार्ग में एक बाधा है।

सरकार की असहमति और आलोचना एक जीवन्त लोकतन्त्र में सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्व हैं। इसलिए इन्हें राजद्रोह नहीं माना जा सकता चाहिए।

धारा 124ए में निहित असन्तोष जैसे शब्द अस्पष्ट स्वरूप लिए हुए हैं तथा इनकी क्या व्याख्या करनी है या की जाएगी यह जांच अधिकारी की मर्जी एवं समझ पर निर्भर करता है।

कई बार सरकार द्वारा राजनीतिक असन्तोष को दबाने के लिए इस राजद्रोह कानून का एक उपकरण के रूप में दुरूपयोग किया जाता है।

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य

  • 1962 के ऐतिहासिक केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायलय में राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था, लेकिन इसके दुरूपयोग के दायरे की सीमित करने का भी प्रयास किया गया था।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक हिंसा के लिए उकसाया या आहृवन न हो, सरकार की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता है।
  • इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल ‘अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या कानून और अव्यवस्था की गड़बढ़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए।

राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने लगायी अस्थायी रोक

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई, 2022 को एक ऐतिहासिक फैसले में भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत राजद्रोह कानून से सम्बन्धित सभी लम्बित सुनवाइयों अपीलों और कार्यवाहियों पर तब तक के लिए रोक लगा दी गयी है, जब तक केन्द्र सरकार इसके प्रावधानों की पुनः जांच नहीं कर लेती।

  • मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने यह भी कहा कि न्याय के हित में यह उम्मीद की जाती है कि राज्य व केन्द्र सरकार आईपीसी की धारा 124ए के विचाराधीन रहने के दौरान इस कानून के तहत कोई नई प्राथमिकी दर्ज करने से परहेज करेंगे।
  • देश की सुरक्षा व अखण्डता तथा नागरिक स्वतन्त्रता के मध्य सन्तुलन बनाये रखने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुये पीठ ने कहा है कि यदि कोई नया मामला दर्ज किया जाता है, तो प्रभावित पक्ष उचित राहत के लिए सम्बन्धित अदालतों का दरवाजा खटखटाने के लिए स्वतन्त्र हैं।

वैधनिकता को चुनौती देने वाली याचिकाएं

धारा 124ए के तहत राजद्रोह कानून की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाआंे के एक बैच पर सुनवाई करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया।

याचिकाकर्ताओं ने वैधनिकता को चुनौती देने वाली याचिका में तर्क दिया है कि केदारनाथ वाद में न्यायालय द्वारा दी गई राजद्रोह की परिभाषा को कई अन्य कानूनों के माध्यम से सम्बोधित किया जा सकता है, जिसमें गैरकानून गतिविधि रोकथाम अधिनियम जैसे कडे़ आतंकवाद विरोधी कानून शामिल हैं।

निर्णय के निहितार्थ

राजद्रोह कानून की वैधानिकता के सम्बन्ध में सर्वोच्च अदालत का यह हस्तक्षेप बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि न्यायालय इस कानून को रद्द करता है, तो उसे केदारनाथ वाद मे दिए गये अपने फैसले को रद्द करना होगा। हालांकि, यदि सकार इस कानून की समीक्षा करने का निर्णय लेती है, तब ऐसी स्थिति में या तो वह इस कानून की भाषा में फेरबदल करेगी या इसे निरस्त करेगी। यदि इस कानून में सरकार कुछ सीमित संशोधन करती है तब ऐसी स्थिति में यह कानून एक भिन्न रूप में दोबारा लागू किया जा सकता है।

यह भी जरूर पढ़े संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय

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