भारत की जनजातीयां

भारत की जनजातीयां : उनका विकास एवं संस्कृति

भारत में जनजातीय आबादी संख्यात्मक रूप से एक अल्पसंख्यक समूह होने के बावजूद विशाल विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। जनजातीय लोगों की अपनी विशिष्ट संस्कृति और इतिहास है, वे भारतीय समाज के अन्य वंचित वर्गो के साथ अपर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आर्थिक वंचना और सांस्कृतिक भेदभाव जैसी समस्याओं का सामना कर रहे है। 3 राज्यों दिल्ली, पंजाब, हरियाणा नामक तथा केन्द्रशासित प्रदेशों पुडुचेरी एवं चन्डीगढ़ को छोड़ दिया जाऐ तो भारत के लगभग प्रत्येक राज्य में जनजातीय आबादी पाई जाती है। इनका सर्वाधिक संकेंद्रण देश के उत्तरी-पूर्वी तथा मध्य भागों में है।

जनजातीयों का श्रेणीकरण उनके सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों को प्रदर्शित करता है। किन्तु “अनुसूचित जनजाति” के रूप में श्रेणीकरण के राजनीतिक-प्रशासनिक निहितार्थ भी है। जनजातियों की निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति को देखते हुए व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि स्वतन्त्रता के बाद इनके लिए चलाई जाने वाली योजनाओं का संपूर्ण लाभ इन्हें प्राप्त नहीं हुआ है। भूमि से बेदखली तथा विस्थापन के कारण उत्पन्न चुनौतियों ने इनकी स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। भारत सरकार के लिए यह आवश्यक है कि जनजाति विशिष्ट कार्यकर्मो एवं योजनाओं को संचालित करके भारत के जनजातिय वर्गों को शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से मजबूत किया जाय, जिससे उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके।

भारत में जनजातीय विकास तथा उनकी संवैधानिक स्थिति

इतिहास एवं पृष्ठभूमि

  • 19 वीं शताब्दी में जनतातीय विद्रोहो के परिणामस्वरूप क्षेत्रों को सामान्य विधियों के कार्यान्वयन से बाहर रखने की ब्रिटिश नीति का विकास हुआ।
  • वर्ष 1833 के रेगुलेशन XIII के तहत ब्रिटिश सरकार ने गैर-विनियमित प्रांतों का निर्माण किया, जिन्हें नगरिक (सिविल) एवं आपराधिक न्याय, भू-राजस्व के संग्रह और एवं अन्य विषयों में विशेष नियमों द्वारा शासित किया जाना था। इसने सिंह भूमि क्षेत्र के जनजातीय क्षेत्रों में पहली बार प्रशासन की एक नई प्रणाली की शूरूआत की।
  • पूर्वोत्तर क्षेत्र में अंग्रेजों ने वर्ष 1873 में आंतरिक रेखा विनियमन (Inner line Regulation) को उस बिंदु के रूप में लागू किया जिसके पार उपनिवेश के लिये प्रचलित सामान्य कानून लागू नहीं होते थे और इस क्षेत्र के बाहर रहने वाले लोगों का यहॉ प्रवेश करना वर्जित था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अनुसार गर्वनर जनाजातीय क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप से अथवा अपने अभिकर्ताओं के माध्यम से नीति निर्धारित कर सकता था।
  • वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों को ‘बहिर्वेशित’ और ‘आंशिक रूप से बहिर्वेशित’ क्षेत्रों में वर्गीकृत ‘पिछड़ी जनजातियों’ के रूप में जाना जाता था। वर्ष 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने पहली बार ‘पिछड़ी जनजातियों’ के प्रतिनिधियों को प्रान्तीय विधान सभाओं में आमंत्रित किया।

जनजातियों के विकास से सम्बन्धित विभिन्न समितिया

  • एलविन समिति (1959)- सभी जनजातिय विकास कार्य कर्मो के लिए बुनियादी प्रशासनिक इकाई ‘बहुउद्वेश्यीय विकास खण्ड’( मल्टी-र्पपज डेवलपमेन्ट ब्लॉक) के कार्य करण की जॉच के लिए।
  • यू एन ढेबर आयोग – वर्ष 1960 में जनाजातिय क्षेत्रों में भूमि अलगाव के मुदे सहित जनाजातिय समूह की समग्र स्थिति को सम्बोधित करने के लिए गठित ।
  • लोकुर समिति (1965): गठन अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के मानदन्ड पर विचार करने के लिए किया गया था। समिति ने पहचान के लिए पॉच मानदन्डों को चिन्हित किया-आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बडे पैमाने पर समुदाय के साथ सम्पर्क में संकोच और पिछड़ापन ।
  • शीलू ओ समिति (1966): समिति ने एल्विन समिति की ही तरह जनजातिय विकास और कल्याण क मुदो को सम्बोधित किया।
  • भूरिया समिति (1991): समिति की सिफरिसों ने पेसा अधिनियम (PESA Act), 1996 के अधिनियमित होने का मार्ग प्रशस्त किया।
  • भूरिया आयोग (2002-2004): आयोग द्वारा पॉचवीं अनूसूचि से लेकर जनजातिय भूमि एंव वन, स्वास्थ्य व शिक्षा, पंचायतो के काम काज और जनजातिय महिलाओं की स्थिति कैसे कई मुदो पर ध्यान केन्द्रित किया ।
  • बन्दोपाध्याय समिति (2006)वामपंथी चरमपंथ प्रभावित क्षेत्रों में विकास और शासन से सम्बन्धित मुदो को सम्बोधित किया।
  • मुंजेकर समिति (2005): समिति द्वारा जनजातिय क्षेत्रों के प्रशासन और शासन सम्बन्धि मुदों का परीक्षण किया ।

संवैधानिक प्रावधान

  • ब्रिटिश शासन के दौरान जनजातियों के रूप में चिन्हित व दर्ज समुदायों को स्वतन्त्रता के उपरान्त, वर्ष 1950 में संविधान के अंगिकरण के बाद अनूसूचित जनजाति के रूप में पुनः वर्गीकृत किया गया (अनुच्छेद 342)।
  • संविधान का अनुच्छेद 366 (25) अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के लिए प्रक्रिया र्निधारित करता है, इसके अनुसार ’’अनुसूचित जनजातियों का अर्थ ऐसी जनजातियों या जनजातिय समुदायों के अन्दर कुछ हिसों या समूहो से है। जिन्हें इस संविधान के उददेश्य के लिए अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजाति माना जाता है।“
  • अनुच्छेद 340 के तहत भारत के राष्ट्रपति द्वारा पहला पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेकर आयोग, 1953) ने अनूसूचित जनजातियों को इस रूप में परिभाषित किया है, कि “वे एक अलग अनन्य अस्तित्व रखते है और लोगों की मुख्य धारा में पूरी तरह से आत्मसात् नहीं किए गए हैं। वे किसी भी धर्म के हो सकते हैं।“
  • संविधान के अंतर्गत ‘पॉचवां अनुसूची के क्षेत्र’ ‘Fifth schedule areas’ ऐसे क्षेत्र है, जिन्हें राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित करे। वर्तमान में 10 राज्यों-आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा, राजस्थान और तेलंगाना में पॉचवीं अनुसूची के तहत क्षेत्र विद्यम
  • पॉचवीं अनुसूची के प्रावधानों को ‘पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996’ के रूप् में और विधिक व प्रसासनिक सुदृढ़ीकरण प्रदान किया गया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जा सके।
  • छठी अनुसूची के क्षेत्र (Sixth schedule areas) कुछ ऐसे क्षेत्र है, जो पूर्ववर्ती असम और अन्य जनजातीय बहुल क्षेत्रों में भारत सरकार अधिनियम, 1935 से पहले तक बाहर रखे गए थे। तथा बाद में अलग राज्य बने । इन क्षेत्रों (छठी अनुसूची) को संविधान के भाग ग्ग्प् के तहत भी विशेष प्रावधान दिए गए हैं ।
  • क्षेत्र प्रतिबेध (संशोधन ) निरसन अधिनियम, 1976 ने अनुसूचि जनजातियों की पहचान में क्षेत्र प्रतिबंध की समाप्त की और सूची को राज्यों के भीतर प्रखंडों और जिलों के बजाय पूरे राज्य पर लागू अल्पसंख्यक हैं, वे देश के सामान्य प्रशासनिक ढाँचे का हिस्सा हैं ।
  • पांचवी और छठी अनुसूचि के दायरे से बाहर जनजातीय स्वायत्त क्षेत्रों के निर्माण के लिये संसद और राज्य विधानसभाओं को शक्तियां प्रदान की गई हैं। उदाहरण के लिये -लेह स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद ।

जनजातियों के विकास के लिए सरकारी प्रयास

  • जनजातीय कार्य मंत्रालयः जनजातीय कार्य मंत्रालय का गठन 1999 में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के दिू-विभाजन के उपरांत किया गया था । इसका उदेश्य एक समन्वित और सुनियोजित तरीके के भारतीय समााज के अत्यंत वंचित वर्ग अर्थात् अनुसूचित जनजातियों (अजजा) के समेकित सामाजिक-आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केन्दिªत करना है ।
  • राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त और विकास निगम (NSTFDC): NSTFDC अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए विषेश रूप से स्थापित एक शीर्ष संस्था है। यह निगम जनजातीय कार्य मंत्रालय के तहत सरकारी कम्पनी के रूप में निगमित किया गया था। इस का प्रबन्धन केन्द्रीय सरकार, राज्य चैनेलाइजिंग एजेंन्सियों, भारतीय औद्योगिक विकास बैक (आई0डी0बी0आई0) भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन संघ लि0( ट्राइफेड)के प्रतिनिधियों तथा अनुसूचित जनजातियों इत्यादि के ख्याती प्राप्त व्यक्तियों के प्रतिनिधियों के साथ निदेशक बोर्ड द्वारा किया जाता है।
  • राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोंग (NCST): अनुच्छेद 338 में संशोधन करके तथा अनुच्छेद 338क अंतर्निवेश करके दिनांक 19 फरवरी, 2004 को संविधान (89वां संशोधन) अधिनियम, 2003 के माध्यम से राष्ट्रीय अनुसूचि जनजति आयोग की स्थापना की गई थी। आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को क्रमशः केन्द्रिय मंत्री और राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है, जबकि आयोग के सदस्यों को भारत सरकार के सचिव का दर्जा दिया गया है। आयोग के मुख्य कर्त्तव्य-अनुसूचित जनजातियों को दिए गए सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जांच-पड़ताल करना और उनकी निगरनी करना, ऐसे सुरक्षा उपायों के कार्यों का मूल्याकंन करना तथा अनुसूचित जनजातियों को अधिकारों से वंचित करने और सुरक्षा उपयों के संबंध में विशिष्ट शिकायतों की जांच करना।
  • पंचायती राज संस्थान (PRI)/ पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा)% संसद ने संविधान के अनुच्छेद 243 M(Article243M) के अनुसार 5वीं अनुसूची वाले क्षेत्रों तथा जनजातीय क्षेत्रों के लिए इसे लागू करने हेतु पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार)अधिनियम, 1996 (पेसा)को अधिनियमित किया।
  • भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ लिमिटेड (TRIFED): यह एक बहु-राज्यीय सहकारी समिति है, जिसकी स्थापना बहु-राज्यीय सहकारी समिति बधिनियम, 1984 (बहु-राज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 2002) के अन्तर्गत वर्ष 1987 में की गई थी। यह देश में अपने खुदरा बिक्री केन्द्रों “ट्राइब्स इंडिया” के नेटवर्के के माध्यम से जनजातीय उत्पादों का विपणन करती है।

भारत में प्रमुख जनजातीय विकास कार्यक्रम एवं योजनाएं

  • जनजातीय उत्सव, अनुसंधान सूचना और जन शिक्षा योजनाः इसके माध्यम से समृद्व जनजातीय सांस्कृतिक परंपरा, सूचना का प्रचार और जागरूकता सृजन पर ध्यान दिया जाता है। इसमें जनजातीय शिल्प व आहार, उत्सव, खेल-कूद, संगीत, नृत्य और फोटो प्रतियोगिताएं, विज्ञान, कला और शिल्प प्रदर्शन, कार्यशालाएं, सेमिनार, मंत्रालय और राज्यों द्वारा वृत्त-चित्रों की प्रस्तुति तथा प्रकाशनों का प्रदर्शन शामिल है।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से लघु वन उत्पादों के विपणन के लिए तंत्र व लघु वन उत्पादों के लिए मूल्य श्रृंखला का विकास योजनाः यह योजना वर्ष 2013-14 के दौरान जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा शुरू की गई ताकि अनुसूचित जनजातियों से जुड़े लोगों और अन्य परम्परागत वन निवासियों, जिनकी आजीविका लघु वन उत्पादों के संग्रहण व बिक्री पर निर्भर करती है, के लिए अपेक्षित सुरक्षा और सहायत दी जा सके।
  • जनजातीय अनुसंधन संस्थानों (TRI) को सहायता योजनाः योजना के द्वारा नए  को TRI स्थापित करने तथा विद्यमान TRI के कार्यकरण को सुदृढ़ करने के लिए राज्य सरकारों को सहायता प्रदान की जाती है। जिससे वे अनुसंधान और प्रलेखन, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण, समृद्व जनजातीय परंपरा इत्यादि के संवर्धन की मुख्य जिम्मेदारी को पूरा कर सकें।
  • जनजातीय लोगों के विकास तथा कल्याण के लिए जनजातीय उप-योजना को विशेष केन्द्रीय सहायता कार्यक्रमः इस कार्यक्रम के तहत निर्धारित किया जाने वाला अनुदान अनुसूचित जनसंख्या वाले राज्यों को प्रदान किया जाता है। राज्य सरकारों से प्राप्त प्रस्तावों और परियोजना आकलन समिति (PAC) में विचार किए जाने के आधार पर राज्यों को निधियां निर्मुक्त (100% अनुदान) की जाती है।
  • एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय (EMRS): इसे 1997-98 में आरंभ किया गया था ताकि सुदूर क्षेत्रों के अनुसूचित जनजाति छात्रों को गुणवतपरक, उच्चतर प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्रदान की जा सके।

जनजातियों से संबन्धित प्रमुख तथ्य

  • जनसंख्याः 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10,42,81,034 है जो भारत की जनसंख्या का 6 प्रतिशत है। इसी जनगणना में अनुसूचित जनजातियों के रूप में अधिसूचित व्यक्तिगत समूहों की 705 संख्या की पहचान की गई है।
  • विस्तार तथा कार्य की प्रकृतिः अनुसूचित जनजाति समुदाय देश के लगभग 15 प्रतिशत क्षेत्र पर निवास करते हैं। सामान्य आबादी के 53 प्रतिशत की तुलना में अनुसूचित जनजातियों के 80 प्रतिशत से अधिक लोग प्राथमिक क्षेत्र में कार्यरत है।
  • लिंग अनुपातः अनुसूचित जनजातियों का लिंगानुपात ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक 1000 पुरूष पर 991 महिलाओं और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक 1000 पुरूष पर 980 महिलाओं का है।
  • प्रजनन दरः NHFS-3 (2005-06) के अनुसार अनुसूचित जनजाति की आबादी में अनुसूचित कुल प्रजनन दर (TFR) लगभग 1 थी।
  • राज्यवार वितरणः राज्यवार वितरण के संदर्भ में मध्य प्रदेश 7 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है जिसके बाद महाराष्ट्र (10.1 प्रतिशत), ओडिशा (9.2 प्रतिशत), राजस्थान (8.9 प्रतिशत), गुजरात (9.6 प्रतिशत), झारखण्ड (8.3 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ (7.5 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (5.1 प्रतिशत), कर्नाटक (4.1 प्रतिशत), असम (3.7 प्रतिशत), मेघालय (2.5 प्रतिशत) आते है। शेष अन्य राज्य 11.6 प्रतिशत जनजातीय आबादी का प्रतिनिधित्व करते है।
  • ग्रामीण-शहरी अनुपातः ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति जनसंख्या का अनुपात 3 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 2.8 प्रतिशत है।

भारत में प्रमुख जनजातियां राज्यवार स्थिति

  • आंध्र प्रदेशः साधु, भगत, भील, चेंचस (चेंचवार), गडबास, गोंड, गौंडू, जटापुस, कम्मारा, कटटनायकन, कोलावर, कोमल, कोंडा, मन्ना धोरा, परधान, रोना, सावरस, डब्बा येरूकुला, नक्कला, धूलिया, थोटी, सुगलिस, बंजारा, कोंडारेडी, कोया, मुख धोरा, येनादिस, सुगालिस तथा लम्बाडीस आदि।
  • अरूणाचल प्रदेशः अपतानिस, अबोर, डफला, गैलोंग, मोम्बा, शेरडुकपेन, सिंगफो, न्याशी, मिश्मी, इडु, तारोअन, टैगिन, मोनपा तथा वांचो अपतानिस, अबोर, डफला, आदि।
  • असमः चकमा, चुटिया, गर्स, खासी, कोरबी, बोरो, बाराकचारी, कचारी, दिमासा, हाजोंग, संबल मिरी, रवा तथा गारो आदि।
  • बिहारः बिरजिया, चेरो, परैया, संथाल, सावर, खरवार, बंजारा, असुर, बैगा, बिरहोरा, उरांव, संताल तथा थारू आदि।
  • छत्तीसगढ़ः बियार, मवासी, नागासिया, गोंड, बिंझवार, हलवा हल्बी, अगरिया, भैना, भटरा, कावर, तथा सावर आदि।
  • गोवाः धोडिया, दुबिया, नायकदा, सिद्वि, वरली तथा सावर आदि।
  • गुजरातः बरदा, बमचा, भील, चरण, धोड़िया, गमटा, पारधी, पटेलिया, ढांका, दुबला, तलविया, पटेलिया, राठवा तथा सिद्वि हलपाती, कोकना, नायकड़ा आदि।
  • हिमाचल प्रदेशः गद्वी, गुर्जर, पंगवाला, स्वांगला, बीटा, खास, लांबा, लाहौला, बेड़ा भोट, तथा बोध आदि।
  • जम्मू और कश्मीरः बकरवाल, बाल्टी, बेड़ा, गद्वी, गर्रा, सोम, पुरीग्पा, सिप्पी, चांगपा तथा गुर्जर आदि।
  • झारखण्डः बिरहोर, सावर, बेदिया, हो, खरवार, लोहरा, महली, परहैया, संताल, कोल तथा बंजारा आदि।
  • कर्नाटकः अदियां, बरदा, कोरगा पटेलिया, येरवा, हसलारू, कोली, धोर, गोंड, भील, इरूलिगा, मराती, मेदा, नायकदा तथा सोलिगारू आदि।
  • केरलः अदियां, अरैंथन, आर्यन, मोबिलश, उरालिल, इरूलर, कनिकारन, कटुनायगन, कुरिचन, इरावल्ली, कुरूंबस, मलाई तथा मुथुविन आदि।
  • मध्य प्रदेशः बैगा, भील भारिया, बिहरोह, गोंड, काटकरी, खरिया, खोंड, कोल, मुरिया, कोरकू, मवासी, प्रधान तथा सहरिया आदि।
  • महाराष्ट्रः भैना, खोड, राठवा, वार्ली, ढ़ांका, हलबा, कठोडी, कोकना, कोली, भुंजिया, ढोडिया, कटकरी, महादेव, पारधी तथा ठाकुर आदि।
  • मणिपुरः नागा, कुकी, मैतेई, मारम, मोनसांग, पाइटे, पुरूम, थडौ, अनल, माओ, ऐमोल अंगामी, चिरू, तंगखुल, थडौ तथा पैमई नागा आदि।
  • मेघालयः चकमा, खासी, लखेर, पवई, राबा, गारोस, हाजोंग, जयंतिया तथा मिकिर आदि।
  • मिजोरमः चकमा, दिमासा, खासी, कुकी, लखेर, पावी, राबा सिंटेंग, तथा लुशाई आदि।
  • नागालैंडः अंगामी, मिकिर, नागा, सेमा, आओ, चाखेसांग, कोन्याक, लोथा, फोम, गारो, कचारी, कुकी, रेंगमा तथा संगतम आदि।
  • ओडिशाः गडाबा, संथाल, बथुडी बथुरी, मोटाड़ा, भूमिज, गोंड, जुआंग, किसान, कोल्हा, कोरा, खयारा, कोया, मुंडा, परोजा, सौरा, शाबर घरा खरिया, खोंड, मटया, उरांव, राजुआर तथा लाढ़ा आदि।
  • राजस्थानः भील, दमरिया, पटेलिया, सहरिया, नायकदा, नायक, मीना तथा कथोडी।
  • सिक्किमः भूटिया, खास, लेप्चा, लिंबू तथा तमंगी आदि।
  • तमिलनाडूः अदियां, कनिकर, कोटा, टोडा, कुरूमन, अरनदन, एरावलन, इरूलर, कादर तथा मलयाली आदि।
  • तेलंगानाः चेंचस आदि।
  • त्रिपुराः भील, भूटियाय, खासिया, लुशाई, मिजेल, नमटे, मग, मुंडा, चौमल, चकमा, हलम तथा रियांग आदि।
  • उत्तराखण्डः भोटिया, बुक्सा, जनसारी, राजी तथा थारू।
  • उत्तर प्रदेशः कोल, थारू, गोंड, खरवार, सहरिया, परहिया, बैगा, अगरिया तथा चेरो आदि।
  • पश्चिम बंगालः असुर, खोंड, हाजोंग, हो, भूमिज, भूटिया चिक, बरैक, किसान, कोरा, लोढ़ा खेरिया खरियाम, महली, परहैया, राभा, संथाल, सावर, मल पहाड़िया तथा उरांव आदि।
  • अंडमान और निकोबारः ओरांव, ओंगे, सेंटिनली तथा शोम्पेंन आदि।

भारतीय जनजातीय संस्कृति

जनजातियों के सांस्कृतिक विविधता तथा सुंदरता ही उन्हे विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। वर्तमान आलेख में उनकी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं विशेषकर-लोक नृत्य व चित्रकला पर प्रकाश डाला गया है।

भारतीय जनजातियों के प्रमुख लोक-नृत्य

हमारे देश के विभिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों की अपनी अलग-अलग भाषा एवं संस्कृति के साथ गीतों व लोक नृत्यों की अपनी एक अलग लोकसमृद्व विरासत भी है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि विलुप्त हो रही इन लोक नृत्यों एंव लोक गायनों की धरोहर को संजोकर रखा जाए। भारत के प्रमुख जनजातीय लोक नृत्यों की सूची निम्नलिखित हैं

  • हजोंगः नृत्य मेघालय के हंजोंग जनजातीय क्षेत्र में प्रचलित। नृत्य फसल की कटाई से पूर्व अच्छी फसल की कामना और वर्ष भर की खुशहाली के लिए किया जाता है।
  • परबः नृत्य बस्तर (छत्तीसगढ़) के राज मुडिया जनजाति क्षेत्र में प्रचलित। नृत्य को चौत्र मास के शुक्ल पक्ष में फसल की कटार्द के समय अविवाति युवक एवं युवतियों द्वारा किया जाता है।
  • सरहुलः नृत्य मध्यप्रदेश की ओराव जनजाति वाले क्षेत्र में प्रचलित। चौत्र मास की पूर्णिमा की रात को फसल की कटाई के बाद यह नृत्य किया जाता है। रात्रि में किए जाने वाले इस नृत्य की गति अत्यधिक तीव्र होती है।
  • कुडः नृत्य जम्मू कश्मीर राज्य के जम्मू क्षेत्र में प्रचलित तथा अपनी विशिष्ट ध्वनि संरचना के लिए विख्यात । नृत्य को स्त्री, पुरूष तथा बच्चे नए-नए वस्त्र पहनकर सामूहिक रूप से करते है। यह नृत्य मक्का की फसल की कटाई के अवसर पर किया जाता है।
  • बानाः मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में यह नृत्य बसंत ऋतु के स्वागत में किया जाता है।
  • सम्भलपूरीः उड़ीसा के संभलपुर क्षेत्र में यह नृत्य विभिन्न धार्मिक उत्सवोें पर आयोजित किया जाता है। मूल रूप से संभलपुर क्षेत्र का यह नृत्य अब लगभग संपूर्ण उड़ीसा में आश्विन मास में महिलाओं द्वारा किया जाता है ।
  • जोरियाः राजस्थान में भील जनजातीय क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर इस नृत्य को किया जाता है।
  • बच्चा नगमाः कश्मीर घाटी में प्रचलित इस नृत्य को वर्ष में कभी भी युवा युवक एवं युवतियों द्वारा किया जाता है।
  • पैकाः बिहार में मुंडा जनजातीय क्षेत्रों में यह नृत्य विवाहोत्सव और दशहरे के समय किया जाता है। यह एक युद्व नृत्य है किंतु इसे अब अनेक उत्सवों पर मुंडा जनजाति द्वारा किया जाता है। इस नृत्य को हाथों में ढ़ाल तथा तलवार लेकर ढ़ोल, नगाड़ा, शहनाई, रणभेरी तथा मंडल आदि वाद्य यंत्रों की लय पर किया जाता है। इस नृत्य की भाव-भंगिमाएं अतिथियों के प्रति सम्मान को दर्शाती है।
  • रिखपंदः अरूणाचल प्रदेश में सुबनसिरी क्षेत्र में नृत्य प्रचलित है। नृत्य निशी जनजाति के लोगों द्वारा इस क्षेत्र में बसने की याद के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य को विशेषकर निशी जनजाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
  • सोलंकियाः नृत्य मिजोरम राज्य में प्रचलित । पूर्व के समय में यह नृत्य शत्रु दल के सरदार का सिर काट कर लाए जाने पर विजय शोभा यात्रा के समय पिवी तथा लाखर जनजाति द्वारा किया जाता था। किंतु वर्तमान में इस उत्सव तथा अन्य खुशियों के अवसर पर लगभग सभी जनजातियों द्वारा किया जाता है।
  • गुरवटयुलः आंध्रप्रदेश में कर्वा जनजाति समूह द्वारा यह नृत्य शिव की आराधन में किया जाता है। नृत्य के अवसर पर पुरूष द्वारा अपने सिर पर भालू की खाल की टोपी पहनी जाती है।
  • पूक्कावडीः नृत्य केरल के त्रिचूर क्षेत्र में प्रचलित । नृत्य को फूलों से सुसज्जित किसी मंदिर परिसर में लयबद्व तरीके से पदचाल करते हुए किया जाता है।
  • मुचिः नृत्य उड़ीसा में प्रचलित ।
  • जादूरः झारखंड में आरोंव जनजाति वाले क्षेत्र में इस नृत्य का प्रचलन। वसंत ऋतु के स्वागत में इस नृत्य को स्त्री-पुरूष दोनों मिलकर करते है।
  • स्रा परबः झा

By admin

Share via
Copy link
Powered by Social Snap