तीसा -नंदनी अग्रवाल, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

हिन्दी के कथा परिदृश्य में यथार्थवादी, परिकल्पना, नवोन्मेषी परम्परा का विस्तार करते हुए नन्दिनी अग्रवाल ने इतिहास में आलोक में वर्तमान के जादू का सृजन बीज रोपा है। यह कार्य दुस्कर होने के बावजूद लेखिका ने बखूबी इसे साधा है। तत्कालीन समय के नए रहस्य का उद्घाटन बेहद सधे व रोचक शैली में किया गया है। संघर्ष की ड्योढ़ी पर खड़ी तीसा नए आयाम गढ़ती है। राजे रजवाडे के दौर में नए बनते हुए समाज के पदचाप नायिका को आकर्षित व चमत्कृत करते हैं। अस्मितामूलक विमर्श के दौर में नई शैली के परस्पर मंथनगत विमर्श की ओर उन्मुख होने का टूल भी देते हैं। रजनाकार नन्दिनी ने तीसा के जीवन संघर्ष को बड़े सुघड़, सहज, सरल, सुसज्जित शैली में पिरोया है। कथा भाषा में संप्रेषणीयता है और एक बड़े कालखण्ड, परिवेश, बहुविध चऱित्रों एवं घटनाओं का सुनियोजित ढंग से निरूपण किया गया है।

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